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भरतेश चेभव किसी चीजके अन्दर भरे हुए हवाको दबा सकते हैं। परन्तु ऊपर कोई थेला वगैरह न हो तो उस हवाको दबा नहीं सकते हैं । उसी प्रकार शरीरके अन्दर जबतक यह आत्मा रहता है जबतक रोगादिक बाधायें हैं, जब यह शरीरको छोड़कर चला जाता है तो उसे कोई भी बाधा नहीं है।
अग्नि, हथकड़ी, पत्थर, अस्त्र, शस्त्रादिकके आघातसे यह औदारिक शरीर बिगड़ता है, और नष्ट भी होता। परन्तु तेजसकार्माणशरोर तो इनसे नष्ट नहीं होते हैं ये दो शरीर ध्यानाग्निसे हो जलते हैं ।
तेजसकार्माणशरीरके नष्ट होनेपर हो वास्तवमें इस आत्माको मुक्ति होती है। तेजसलार्ग शारीरदो नशा नेगे लिए भीजिन्द्र पनि ही यथार्थ युक्ति है। भक्ति दो प्रकारको है। एक भेदभक्ति और दूसरी अभेदभक्ति | इस प्रकार भेदाभेदभक्तिके स्वरूपको बहुत आदरके साथ उन्होंने वर्णन किया।
समवशरणमें श्री जिनेन्द्रभगवंत हैं, अमृतलोक अर्थात् मोक्षमन्दिरमें श्रीसिद्धभगवंत विराधमान हैं, इस प्रकार क्रमसे उनको अलना रखकर ध्यान करना उसे भेदभक्ति कहते हैं।
उन जिनसिखोंको वहाँसे निकालकर अपने आत्मामें ही उनका संयोजन करें और अपने आत्मामें या हुन्मन्दिरमें जिनसिद्ध विराजमान हैं इस प्रकार ध्यान करें उसे अभेदभक्ति कहते हैं । यह मुक्ति के लिए कारण है।
जिनेन्द्रभगवंतको अपनेसे अलग रखकर ध्यान करना यह भेदभक्ति है। अपने में रखकर ध्यान करना उसे अभेदभक्ति कहते हैं । यह जिनशासन है, इस प्रकार बहुत भक्तिके साथ वर्णन किया ।
भेदभक्तिको ध्यानके अभ्यासकालमें आदर करना चाहिए । जबतक इस आत्माको ध्यानकी सामर्थ्य प्राप्त नहीं होती है तबतक भेदभक्तिका अवलंबन जरूर करना चाहिए। तदनन्तर अभेदभक्तिका आश्रय करना चाहिए। अभेद भक्ति में आत्माको स्थिर करना अमृतपद अर्थात् सिद्धस्थानके लिए कारण है। ___ आत्मा जिनेन्द्र और सिद्धके समान ही शुद्ध है, इस प्रकार प्रतिदिन अपने आत्माका ध्यान करना यह जिनसिद्धभक्ति है, तथा निश्चय रत्नत्रय है और मुक्तिके लिए सामाद कारण है।
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