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भरतेश वैभव
४२९ एक स्त्री भरतेश्वरकी अनुमति पाकर उस पत्रको बाँचने लगी। वह पत्र निम्नलिखित प्रकार था-.-.
पोदनपुर राजमहल
मित्ती. . . . . . . . .. श्री सुभद्रादेशी आदि अंसारकी समस्त रानियोंको विनयसे नमस्कार कर इच्छामहादेवी आदि सतियां बहुत उल्लासके साथ निम्नलिखित पंक्तियोंको लिखती हैं ...
बहिनो ! हम लोगोंको अब इस गार्ह स्थिक जीबनसे उपेक्षा हो गई है, अब हम तापसीजीवनको अनुभव करना चाहती हैं। हमारे पतिदेव जिस दिशा की और गये हैं, उसी दिशाकी ओर हम जाना चाहती हैं। इसके लिये आपलोग मनमें बिलकुल चिंता न करें। भावाजी(भरतेश्वर) से बिलकुल विरस नहीं हुआ। हमारे पतिका देव ही ऐसा था। वहीं उनको ले गया। कौन क्या करें? हम लोग अब ब्राह्मीसुन्दरीके पासमें रहकर तपोवनकी क्रीड़ा करेंगी। हमारे समान आप लोग अर्धभोगी न होकर अपने पतिदेवके साथ चिरकाल सुख भोगकर बुढ़ापेमें आत्मसिद्धि कर लेवें, यही हम लोगोंकी कामना है । लोग सब सुखी हो, भोगराज्य आपके लिए रहे, योगराज्य हमारे लिए रहे। हम उसे पाकर उसका अनुभव करेंगी, परमेश ! ते नमःस्वाहा । इति.
-इच्छामहादेवी पत्रको बाँचनेपर सबको बड़ा दुःख हुआ । भरतेश्वरको भी बड़ा दुःख हुआ । इतने में और एक दुःखद घटना हुई । भरतेश्वरके ९३ भाई दीक्षा लेकर जो चले गये थे उस समाचारको भरतेश्वरने मातुश्रीको अभी तक नहीं कहा था, उनका विचार था कि अयोध्याको जानेके बाद ही यह समाचार मातुश्रीको कहें। परन्तु यह समाचार अपने आप यशस्वतीको मालूम हो गया । इसलिए राजमंदिरमें एकदम दुःख का समुद्र ही उमड़ आया।
भरतेश्वर शोकनादको सुनकर मन में व्याकुलतासे कहने लगे कि हा ! मेरे लिये यह चक्ररत्न क्यों मिला? यह राज्यपद महान् कष्टदायक है। इस सम्पत्ति के प्राप्त होनेमें क्या प्रयोजन ? सम्पत्तिके मिलने पर बंधु बांधवोंको सुख पहुँचाना मनुष्यका धर्म है । अपने कुलके लोगों को रुलानेवाली सम्पत्ति के लिए धिक्कार हो। अनेक व्यक्तियोंको दुःख देनेवाले राज्यसे गरीब होकर रहना अच्छा है। चित्तमें कलुषता को धारण करनेसे आत्मामें मग्न रहना सबसे अधिक अच्छा है। तब.