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भरतेश वैभव
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हाथ फेरा। इतनेमें उसके हृदयमें एक नवीन विधारका संचार हुआ । माता यशस्वतीने विचार किया कि देखो ये कितनी भाग्यशालिनी हैं । इनके समान मोक्षसाधन न कर में महलमें रहूं यह क्या उचित है ? मोक्षसाधन करना प्रत्येक आत्माका कर्तव्य होना चाहिए। आज मेरा भाग्य है कि योग्य समय में में यहाँपर आ गई हूँ। इस गंधकुटीके दर्शनका कुछ न कुछ फल अवश्य होना चाहिए। अब मुझे अपने आत्मकार्यको साध्य कर लेना चाहिए। इस प्रकार स्थगत होकर विचार करने लगो ।
मुनियों के पास बैठे हुए अपने पुत्रके पास पहुँचकर माता यशस्वतीने अपने मनको बात कह दी। तब भरतजीने कहा कि जिनसिद्ध ! माताजी आप ऐसी बात नहीं कहियेगा । मैं आपके पैर पड़ता है । इस प्रकार कहते हुए भरतजीने मातुखको नमस्कार किया। पुनः "आप चाहें तो राजमहलके जिन मंदिरमें रहकर आत्मकलगण कर लेवें ! परन्तु भरतको छोड़कर दूर नहीं जाना चाहिये" इस प्रकार कहते हुए माताके चरणों को पकड़ लिया ।
बेटा ! मेरी बात सुनो, इस प्रकार कहती हुई माताने भरतको उठाया और कहने लगो कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो। यह शरीर कैसा भी नष्ट होनेवाला है । उसे तपके कार्य में लगाऊँगी, इसके लिए तुम इतना अधीर क्यों होते हो । बेटा ! मैंने मलभर तुम्हारे वैभवको देख लिया। में रात दिन अखंडित उत्साह व आनंदमें रही, अब जब बाल सब सफेद हुए तो अब तपश्चर्या के लिए जाना ही चाहिये। तुम वीरपुत्र हो ! इसे स्वीकार करो 3
बेटा ! स्त्रीजन्म बहुत ही कष्टतर है। तुम सरीखे पुण्य पुत्रोंको पाकर फिर भी उसी जन्म में मैं आऊँ क्या? बेटा ! इस भाव का नाश मुझे करना है । खुशीसे भेजो। इस प्रकार वह जगन्माता अपने पुत्रसे कहने खणी ।
भरतने पुनः निवेदन किया, कि माता ! महलके जिनमंदिर में मौ बहुतसी अर्जिकार्य है । उनके साथ रहकर आप तपश्चर्या करें। अनेक देशोंमें भ्रमण करनेकी क्या आवश्यकता है ?
बेटा ! आजतक तुम्हारे कहनेके अनुसार महल में ही रहकर तप किया । अब अंतिम समय में जिनसभा में इस देह का त्याग करना चाहिये इसलिए तुम स्वीकार करो । विशेष क्या ? बेटा ! यह शरीर नश्वर है । आत्मा अमर है। इसलिए स्त्रीजन्म के रूपको बदलकर आगे तुम जिस