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भरतेश वैभव
ब्रामललाम गति माता यशस्वति व सुनंदादेवीके दीक्षा लेने के बाद कई दिनों की बात है। भरतेश्वर एक दिन दरबारमें अध्यात्परसमें मग्न होकर विराजे हए हैं । वहाँपर द्विज, क्षत्रिय, वैश्य, व शूद्र इस प्रकार चारों वर्णको प्रजायें भरतेश्वरके चारों ओर थी, जैसे कि भ्रमर कमलके चारों ओर रहते हों। उस समय सम्राट्ने आत्महितके मार्गका प्रदर्शन किया ।
इधर उधरकी कुछ बातें करनेके बाद वहाँ उपस्थित सज्जनोंका पुण्यहोने मानों बुलवाया, उस प्रकार भरतेश्वरने आत्मतत्वका प्रतिपादन किया | बहुन हो सुंदर पद्धतिसे आत्मतत्वको प्रतिपादन करते हुए भरते. श्वरसे मंत्रीने प्रार्थना की कि स्वामिन् ! सब लोग जान सके इस प्रकार
आत्मकलाका वर्णन कीजिये। दिव्यवाक्पतिके आप सुपुत्र हो। इसलिए हमें आत्मद्रव्य के स्वरूपका प्रतिपादन कीजिए। इस प्रकार भकिसे प्रार्थना करनेपर आसन्न भव्योंके देवने इस प्रकार कथन किया।
हे बुद्धिसागर ! सुनो, सर्वकलाओसे क्या प्रयोजन ? आत्मकलाको अच्छी तरह साधन करनेपर लोक में यह सर्वसिद्धिको प्राप्त कराता है। जो सज्जन परमात्माका ध्यान करते हैं वे इस लोकमें स्वर्गादिक सुखोंको भोगकर क्रमशः कोको ध्वंस करते हैं एवं मुक्तिश्रीको पाते हैं।
दूर नहीं है, वह परमात्मा सबके शरीररूशे मकानमें विद्यमान है। उसे पाकर मुक्ति प्राप्त करनेके मार्गको न जानकर लोग संसारमें भ्रमण कर रहे हैं। मंत्री ! जिस देहको उसने धारण किया है उस देहमें वह सर्वांगमें भरा हआ है। वह सूज्ञान, सद्दर्शन, सुख व शक्तिस्वरूपसे युक्त है। स्वतः निराकार होनेपर भी साकार शरीरमें प्रविष्ट है। उसका क्या वर्णन करें।
वह आत्मा ब्राह्मण नहीं है, क्षत्रिय नहीं है, वैश्य नहीं है, शूद्र भी नहीं है । ब्राह्मणादिक संझासे आत्माको इस शरीरको अपेक्षासे संकेत करते हैं । वह आत्मा योगो नहीं है, गृहस्थ भी नहीं है। योगी, जोगी, श्रमण, संन्यासी इत्यादि सभी संज्ञायें कर्मोको अपेक्षासे हैं ।
वह आत्मा स्त्री नहीं है, स्त्रीको अपेक्षा करनेवाला भी नहीं है । पुरुष व नपुंसक भी नहीं है । भोमांसक, सांख्य, नैयायिक, आईत् इत्यादि स्वरूपमें भी वह नहीं है । यह सब मायाचारके खेल हैं ।