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भरतेश वैभव
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फिर एक दफे (चंचलसा आनेपर ) वह प्रकाश मंद होता है। स्थिरता आनेपर फिर उज्ज्वल होता है। __एक दफे सर्वांगमें वह दिखता है । फिर हृदय, मुख व गर्भमैं प्रका. शित होता है । इस प्रकार एक दफे प्रकाश दूसरी दफे मंदप्रकाश इत्यादि रूपसे दिखता है । क्रम-क्रमसे ही वह साध्य होता है। ____ मंत्री ! इस शरीरमें एक दफे यह परमात्मा पुरुषाकारके रूपमें दिखता है । फिर आकाररहित होकर शरीरमें सर्वत्र प्रकाश हो प्रकाश भरा हमा दिखता है । उस समय यह आत्मा निराकुल रहता है।
ध्यानके समय जो प्रकाश दिखता है वही सुशान है, दर्शन है, रत्नत्रय है । उस समय कम झरने लगता है । तब आत्मसुखकी वृद्धि होती है।
आँखोंको छोटीसी युतलियोंसे देखना क्या है ? उस समय यह आत्मा सर्वांगसे ही देखने लगता है । हृदय व अल्प मनसे जानना क्या ? सर्वांग से जानने लगता है।
नासिका, जिह्वा, आदि अल्पेंद्रियों का क्या सुख है ? उस समय उसके सवीगसे आनन्द उमड़ पड़ता है । शरीरभर वह सुखका अनुभव करता है। मंत्री ! वह वैभव और किसे प्राप्त हो सकता है ?
उस समय बोलवाल नहीं है। श्वासोच्छ्वास नहीं है, शरीर नहीं है। कोई कल्मष नहीं है, इधर-उधर कंप नहीं है । आत्मा पुरुषरूप उज्ज्वल प्रकाशमय दिखता है । शरीरके थोड़ा सा हिलनेपर आत्मा भी थोड़ा हिल जाता है । जिस प्रकार कि जहाजके हिलनेपर उसमें बैठे हुए मनुष्य भी थोड़ा-सा हिल जाते है।
मंत्री ! अभ्यासके समय पोड़ीसो चंचलता जरूर रहती है, परन्तु अच्छी तरह अभ्यास होनेके बाद सभ्योंके समान गंभीर व निश्चल हो जाता है । उस समय यह आत्मा पुषाकार समुज्ज्वल कांतिसे युक्त होकर दीखता है । और उस समय कोई क्षोम नहीं रहता है।
उस समय उसका क्या वर्णन करें। प्रकाशकी वह पतली है। प्रभाको वह मूर्ति है, चिस्कलाको वह प्रतिमा है, कांतिका वह पुरुष है, चमक का वह बिष है । प्रकाशका चित्र है । इस प्रकार वह मात्मा अन्दरसे दिखता है।
विशेष क्या ? जुगनूने ही परपुरुषको धारण किया तो नहीं ? अथवा -क्या हापको न लगनेवाले दर्पगने ही परपुरुषको धारण किया है ? पहिले कभी अन्यत्र उस रूपको नहीं देखा था, बाश्चर्य है।