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भरतेश वैभव ही इस आत्माको करना पड़ता है। गारुडी विधाका गुरु क्या रण-रंगमें आ सकता है ? कभी नहीं । शत्रुओंको जीतनेके लिए तो स्वयं ही को प्रयत्न करना पड़ता है। __ यदि युद्धस्थानमें स्वयं वीरतासे काम लिया और वह वीर विजयी हुआ तो क्या पहिले जिसने अभ्यास कराया था वह खिन्न होगा ? क्या वह सोचेगा कि मेरी अपेक्षा किये बिना ही यह वीर सफल होता है ! कभी नहीं । उसके लिए ता हर्ष होना चाहिए । इस प्रकार भेदभक्तिको पूर्णता होनेपर स्वयं स्वर्य को देखकर मुक्तिको प्राप्त करता वही वास्तविक उत्कृष्ट जिन-भक्ति है। स्वयं आत्मानुभव करने में समर्थ होनेपर देवगुरु उसकी सफलतामें खिन्न नहीं हो सकते हैं।
भगवंतको अपने चित्तसे अलग रखकर भक्ति करना देखना यह भेदभक्ति है । वह स्वर्गक लिए कारण है। परन्तु अपने ही शरीरमें उस भगवंतका दर्शन करें मुक्ति प्रदान करानेवाली वही सुयुक्ति है । और वास्तविक भक्ति है।
चेतनरहित शिला, कोसा वगैरहमें जिन समझकर प्रेम व भक्ति करना वह पुण्य है । आत्मा चैतन्यरूप है, देव है, यह समझकर उपासना करना यह नूतन-भक्ति मुक्तिके लिए कारण है।
शानकी अपूर्णता अबतक रहती है तबतक यह अरहत बाहर रहता है। जब यह आत्मा अच्छी तरह जानने लगता है तबसे अरिहतका दर्शन अपने शरीरके अन्दर ही होने लगता है । इसमें छिपानेको बात क्या है? अपने आत्मा को ही देव समासकर जो वंदना कर श्रद्धान करता है वहीं सम्यग्दृष्टि है।
सचिव ! आजतक अनंत जिनसिद्ध अपनी आत्मभावनासे कर्मोको नाशकर मोक्ष सिधार गये हैं। उन्होंने अपनी कृतिसे जगत्को हो यह शिक्षा दी है कि लोक सब उनके समान ही स्वतः कर्म नाश कर उनके पीछे मुक्ति आवें । इस बातको भव्यगण स्वीकार करते हैं। अभक्ष्य इसे गप्पेबाजी समझकर विवाद करते हैं। आत्मानुभव विवेकियोंको हो हो सकता है । अधिवेकियोंको वह क्यों कर हो सकता है ? ___ अभव्य कहते हैं कि हमें आत्मासे अकेले क्या करना है। हमें अमेक पदार्थोंके अनुभवकी जरूरत है। अनेक पदार्थों में जो सुख है उसे अनुभव करना जरूरी है। ऐसी अवस्थामें अध्यात्मतत्वको हम स्वीकार नहीं कर सकते हैं। इत्यादि कहते हुए मघु मक्खियोंके कांटोंके समान एकमेकसे विवाद करते रहते हैं।
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