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भरतेश वैभव बुद्धिसागर मन्त्रोने कहा कि स्वामिन् ! व्यर्थ ही मेरी आशा क्यों करते हैं, क्षमा कोजिये । माने जाना है, भेज दीजिये। यह कहकर भरतश्वरके चरणों में पुनः अपना मस्तक रक्खा | भरतेश्वर समझ गये कि अब यह गये विना न रहेगा।
मंत्री ! तुम्हारे तंत्रको मैं समझ गया। अब उठो। आज तक तुम मुझे नमस्कार करते थे। अब अपने चरणों में मुझसे नमस्कार कराना चाहते हो। मैं समझ गया। अच्छा तुम्हारी जैसी मर्जी है वैसा ही होने दो । इस प्रकार कहकर भरतेश्वरने उसे उठाकर दुःखके साथ आलिंगन दिया व उसे जानेकी अनुमति दी। तब बुद्धिसागरने अपने पट्टमुद्रिकाको हाथसे निकालकर सम्राट्को सौंपते हुए कहा कि मेरे सहोदरको दयाई दृष्टिसे संरक्षण दोषिये। मुद्रिकाको जब उन्होंने निकाल दिया उस समय ऐसा मालूम हो रहा था कि शायद बुद्धिसागर रागांकुरको हो निकाल कर दे रहा हो।
सम्राटकी आँखोंसे आंसू उमड़ने लगे । बुद्धिसागर मन्त्रोके मित्र सहोदर वगैरह चिन्तामग्न हो गये। परन्तु बुद्धिसागरके हृदय में यथार्थ वेराग्य होनेसे उन्होंने किसीकी तरफ नहीं देखा। फिर एक बार हाथ जोड़कर उस सभासे बुद्धिसागर चुपचापके दीक्षाके लिए निकल गया।
भरतेश्वर अपने मनको धीरज बांधकर बुद्धिसागरके भाईको समझाने लगे कि विप्रवर ! तुम दुःख मत करो। तुम्हारे भाईको अब बुढ़ापेमें आत्मसिद्ध कर लेने दो। व्यर्थ चिन्ता करनेसे क्या प्रयोजन है ? जब तुम्हारा भाई योगके लिए चला गया तो अब हमारे लिए बुद्धिसागर तुम ही हो। यह कहकर अनुरागके साथ सम्राट्ने उस पटमुद्रिकाको उसे धारण कराया । साथमें अनेक प्रकारके वस्त्राभूषणोंसे उसका सत्कार किया एवं कहा गया कि अब समस्त पृथ्योका भार तुमपर ही है इत्यादि कहकर बहुत संतोषके साथ उसे वहाँ से भेजा। __ अमेक प्रकारके मंगल द्रव्य, हाथी, घोड़ा, ध्वजपताका व मंगल वाद्योंके साथ मित्रगण नवीन मन्त्रीको जिनमन्दिरमें ले गये। वहाँपर दर्शन-पूजन होनेके बाद पुनः सम्राट्के पास आकर उनके चरणोंमें भक्तिसे अनेक भेंट रखकर नमस्कार किया। इसी प्रकार युवराजके घरणोंमें भी भेट रखकर नमस्कार किया। सर्व सभासदोंने जयजयकार किया । बुद्धिसागर मन्त्री तदनन्तर महाजनोंके साथ मिलकर अपने घरको ओर चला गया।
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