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भरतेश वैभव
पुनः धर्म कर्मकी उत्पत्ति वृद्धि होगी । पुनः वृद्धि हानि इस प्रकारको परम्परामें यह संसारका चक्र चलता ही रहेगा ।
७७.
स्वप्नोंके फल को सुनकर भरतजी कहने लगे कि प्रभो ! ये दुःस्वप्न तो जरूर हैं। परन्तु मेरे लिए नहीं। आगे के लोगोंके लिए। इन स्वप्नोंके देखनेसे मुझे आपके चरणोंका दर्शन मिला, इसलिए मेरे लिए तो ये सुस्वप्न ही हैं। इसलिए हे अस्वप्नपतिवंद्य भगवन् ! आपकी जयजयकार हो ।
प्रभो ! आपके चरणोंमें एक निवेदन और है। में इस कैलास पर्वतपर जिनमन्दिरों का निर्माण कराना चाहता हूँ। उसके लिए आज्ञा मिलनी चाहिए ।
तदनन्तर भरतेश्वर भगवंतकी स्तुति कर ब्राह्मणोंके साथ भगवंतके धरणोंमें नमस्कार कर वहाँसे निकले, साथमें वहां उपस्थित तपस्वियों की भी वन्दना की । समवसरणसे हर्षपूर्वक कैलास पर्वतपर आये। और जिनमन्दिर निर्माण के लिए योग्य स्थान देखकर वहाँपर जिनमन्दिर निर्माण के लिए भद्रसुखको कहा गया। इधर उधर नहीं, सुन्दर, पंक्तिबद्ध होकर ७२ जिनमन्दिरोंका निर्माण करो! फिर में प्रतिष्ठाकायको स्वयं सम्पन्न करूंगा, यह कहकर भद्रसुखकी नियुक्ति उस काम की ।
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उसी समय तेजोराशिनामक अध्यात्मयोगी उस मार्ग का रहे थे वे आहार के लिए भूप्रदेशमें गये थे । भाते हुए कैलास पर्वतपर सम्राट्का और उनका मिलाप हुआ । तेजोराशिमुनि सामान्य नहीं हैं । नामके समान ही प्रतिभासम्पन्न हैं । भगवंतके गणधर हैं। मनःपर्यय ज्ञानधारी हैं । अणिमादि सिद्धियोंके द्वारा युक्त हैं ।
विप्र समूहके साथ सम्राट्ने उन महात्मा योगी के चरणोंमें नमोस्तु किया। उस कारण योगीने भी आशीर्वाद दिया ।
योगोने कहा कि राजन् ! तुम यहाँपर नूतन जिनमंदिरोंका निर्माण करा रहे हो यह सुन्दर बात है । तुम्हारे लिए एक और परहितका कार्य कहूँगा । उसे भी तुम फरो
गुरुवर ! आज्ञा दीजिए, जरूर करूंगा। इस प्रकार विनयसे भरतेश्वर ने कहा ।
भरत ! तुम्हारे रानियोंको भगवंत के दर्शनकी बड़ी हो उत्कट इच्छा है । परन्तु लोगों की भीड़ अगणित रूपसे होनेसे उनको अनुकूलता ही नहीं मिलती है । इसलिए उन लोगोंने भगवंतके दर्शन होनेतक एक-एक