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भरतेश वैभव
करनेके लिए और इनके दुःखको दूर करनेके लिए में आया था। परन्तु इन्होंने ही मुझे संतुष्ट किया, आश्चर्यको बात है ।
तदनंतर तीन दिन वहां रहकर एकएकके महल में एकएक दिन सम्राट् ने भोजन और तीन दिन बहुत आके साथ व्यतीत किया। और कहा कि बेटा ! भ्रूप व हवासे भी तुम लोगोंको तकलीफ नहीं होने दूँगा, चिंता मत करो। कहकर वहाँसे विदा हुए। प्रणयचंद्र मन्त्री व सेनापतिका भी योग्य सत्कार कर एवं पुत्रकी सेनाको संतुष्ट कर अपने अयोध्यापुरकी ओर रवाना हुए । भरतेश्वरके व्यवहारसे सभी संतुष्ट हुए । बहुत दूरकर तो लोग उनके पीछा न छोड़कर आ रहे थे। उन सबको जाने के लिए कहकर अपने पुत्र व गणबद्धों के साथ एवं अनेक गाजेबाजेके शब्दसे आकाश प्रदेश गुंजायमान होते हुए विमानारूढ़ हुए | वायुमार्ग से वायुवेग से चलकर अपने महलकी ओर आये व वहाँपर आनंदसे अपना समय व्यतीत करने लगे ।
पाठक आश्चर्य करेंगे कि भरतेश्वर कभी संतोष में और कभी चितामें मग्न होते हैं । परन्तु उनका पुण्य इतना प्रबल है कि दुःखहर्षजन्य विकार अधिक देर तक नहीं रहता है, संसारमें यही सुख है । यह मनुष्य हर्षके आनेपर आनंदसे फूल जाता है, और दुःखके आनेपर वायर बन जाता है । यह दोनों ही विकार हैं । इस हषं विषादोंसे उसे कष्ट होता है । परन्तु जो मनुष्य इन दोनों अवस्थाओंको वस्तुस्थितिको अनुभव कर परवश नहीं होता है वह धन्य है, सुखी है । भरतेश्वर सदा इस प्रकारकी भावना करते हैं ।
"हे परमात्मन् ! तुम चिंतातिक्रांत हो। संतोष हो या चिता हो, यह दोनों विकारजन्य है और अनित्य हैं, इस भावनाको जागृत कर मेरे हृदयमें सदा बने रहो।"
हे सिद्धात्मन् ! मायाको दूर कर नाटय करते हुए लोकको आत्मरसायन पिलानेवाले आप निरायास होकर मुझे सन्मति प्रदान करें। यही आपसे विनय है ।
इसी सुविशुद्ध भावनाका फल है कि भरतेश्वर हर्षविषादजन्य विवारको क्षणमात्रमे जीत लेते हैं ।
इति - जननी- वियोग-संधि
1891
MIUMIRAT