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भरतेश वैभव मुक्तिको जाते हो वहींपर मैं भी आती हूँ । इसलिए मुझे अब जल्दी भेजो। इस प्रकार माताने साहसके साथ कहा ! __ इतने में वहाँ उपस्थित मुनिराजोंने भी कहा कि भव्य ! अब बुढ़ापेमें तुम्हारे महल में माता कितने दिन रहेगी, दीक्षा लेने दो, तुम सम्मति दो। भरतजी मुनियोंकी बात सुनकर मौनसे रहे। और भी तपोनिधि महर्षियोंने कहा कि न्यायसे आत्मकार्य करने के लिए वह जब कहती है तो अंतराय करना क्या तुम्हारे लिए उचित है ? माता कौन है ? तुम कौन हो ? आत्मकल्याणके लिए मार्गको देखना प्रत्येकका कर्तव्य है। इसलिए अब रोको मत, चुप रहो। भरत ! विचार करो, क्या वैराग्य ऐसी कोई सस्ती चीज है कि जब सोचे तब मिले। चाहे जब मिलनेकी वह चीज नहीं है । इसलिए ऐसे समयको टालना नहीं चाहिये ।
भरतजी आगे कुछ भी नहीं बोल सके । मौनसे माताकी ओर देखते रहे।
मुनियोंने भी भरतके मनकी बात समझकर माता यशस्वतीको भगवतके पास ले गये । राजन् ! तुम्हारो सम्मति है न ? इस प्रकार प्रश्न आनेपर मोनसे ही सम्मतिका इशारा किया। इतने में मुनिराजोंने भगवंतसे कहकर यशस्वतीको दीक्षा दिलाई। गुरुओंसे क्या नहीं हो सकता है ? ये मोक्ष भी दिला सकते हैं।
जिस समय माता यशस्वतीकी दोक्षाविधि हो रही थी उस समय देवदुंदुभि बज रही थी, देवगायिकायें देवगान कर रही थीं। देवांगवस्त्रसे निर्मित परदेके अंदर दीक्षाविधि हो रही है। उस समय भगवंतने उपदेश दिया कि अपने शरीर आदि लेकर सर्व पदार्थ पर हैं ! केवल आत्मा अपना है । मनसे अन्य चिन्ताओंको दूर करो और आत्माको देखो । श्वेत पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ, और रूपातीत इन चार ध्यानोंका अभ्यास क्रमसे करके पिंडस्यमें चित्तका लगाकर लीन होना यही मुक्ति है। विशेष क्या ? भव्या! परिशुद्ध आत्मा हो केवल अपना है | कम शरीर मादि सर्व परपदार्थ हैं, फिर चौदह और दस परिग्रह मास्माके केसे हो सकते हैं। तुम्हें सदा एकमुक्ति रहे और यथाशक्ति कभी-कभी उपवास भी करना। निराकुलतासे संयमको पालन करना। इस प्रकार अनंतवीर्य स्वामीके उपदेशको सुनकर यशस्वतीने इच्छामि कहकर स्वीकार किया । विशेष क्या ? भगवंतने अनेक गूढ़ तत्त्वोंको सूत्र रूपमें उपदेश देकर यह भी फरमाया कि तुम्हारे स्त्रीलिंगका विच्छेद होगा ! और आगे देवगतिमें जन्म होगा। वहांसे आकर मुक्ति होगी।