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भरतेश वैभव माता यशस्वप्तीके देहमें मल मूत्र नहीं है। इसलिए कमंडलुको आवश्यकता हो क्या है। इसलिए जोवसंरक्षणके लिए पिछि और आत्मसार पुस्तकको मुनिराजोंने भगवतकी आज्ञासे दिलाये । __इतनेमें देवांगवस्त्रका वह परदा हट गया, अब सफेद वस्त्रको धारण करतो हुई और परदेसे मस्तकको को हुई वह शांतिरसको अधिदेवता बाहर आई। आश्चर्यकी बात है, अब वह यशस्वती नवीन दीक्षित संयमिनीके समान मालूम नहीं होती है । उसके शरीरमें एक नवीन कांति हो मा गई।
समवसरणमें किसोको भी शोकोद्रेक नहीं हो सकता है। इसलिए भरतेश्वरको भी सहन हुआ। नहीं तो मासा जब दीक्षा लेवें तब वह दुःख से मच्छित हुए बिना नहीं रह सकते थे।
उस समय देव, मनुष्य, नागेन्द्र आदियोंने उक्त आयिका यशस्वतीके चरणोंमें भक्तिसे प्रणाम किया ! भरतेश्वरने भी अपने पुत्रों के साथ नमोस्तु करते हुए कहा कि माता ! तुम्हारी इच्छा अब तो तृप्त हुई। परंतु यशस्वती अब भरसेश्वरको अन्य समझ रहो है । उसको पुत्रके रूपमें अब वह नहीं देख रही है । उस स्वस्तिकसे उठकर भगवंतके चरणोंमें देवीने मस्तक रक्खा | भगवंतने भी "सिद्धस्वमिहि" यह कहकर आशीर्वाद दिया। देवों ने पुष्पवृष्टि की । विशुद्ध तपोधनोंने जय-जयकार किया । माता यशस्वती अजिंकामों के समूहकी ओर चलो गई । अजिकाओंने भी "कंती यशस्वसी ! इधर आयो ! बहुत अच्छा हुआ।" कहकर अपने पास बुला लिया।
पुत्रमोह अब किधर गया? पुत्रवधुओंके प्रति जो स्नेह या वह किधर गया ? अतुलसम्पत्तिका आनन्द अब किधर गया ? महात्मानोंको वृत्ति लोकमें अजब है। माता यशस्वसो धन्य है! मोक्षगामी पूत्रों को प्राप्त किया, उन्हीं से एक पुत्र उसे दीक्षागुरु हुआ। लोकमें इस प्रकारका भाग्य कोन प्राप्त कर सकता है। पखंडाधिपति-पुत्रको पाया | उसके समस्त वैभवको तृणके समान समझकर दोशा लो, अब केवल्यको प्राप्ति क्यों नहीं हो सकती है? इत्यादि प्रकारसे वहाँपर लोग आपसमें बातचीत कर
यशस्वतीके केश व त्यक्त वस्त्रको देवांगनागोंने समुद्र में पहुँचाये । भरतेश्वर पुनः भगवंतकी वंदना कर अपने पुत्रोंके साथ अपने नगरको ओर चले गये । गंधकुटोका भो दूसरी तरफ विहार हुआ।
भरतेश्वर जब महलमें पहुंचे तब रानियोंको सासूके दीक्षा लेनेका