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भरतेश वैभव इस प्रकार आत्मसिद्धिके द्वारा बाहुबलि योगीने कर्मोको दूर किया तो एकदम इस धरातलसे ५००० धनुष अपर जाकर खड़े हो गए । उस समय एक पर्वत हो ऊपर उड़ रहा हो ऐसा मालूम हो रहा था। उसी समय चारों ओरसे नर, सुर व नागलाकके भव्य जयजयकार करते हुए वहाँपर उपस्थित हुए। कुबेरने भक्तिसे गंधकुटिकी रचना की । आकाशके बीचमें गंधकूटीकी रचना हुई थी, उस गंधकुटीमें स्थित कमलको चार अंगुल छोड़कर बाहुबलि जिन खडे हैं । परमौदारिक दिव्य शरीरसे अत्यंत सुन्दर मालूम हो रहे हैं। __भरतजी हर्षभरित हुए। आनंदसे कूदने लगे। अत्यन्त भक्तिसे साष्टांग नसस्कार किया व उठकर भक्तिसे बाहुबलि जिनकी स्तुति करने लगे।
भगवान् ! आपको मेरे द्वारा कष्ट हुभा । मैं बहुत हो हतभागी हूँ।
उत्तरमें भुमबलि भगवंतने कहा कि भव्य ! यह बात मत कहो, दुष्कर्मने मुझे उस प्रकार कराया, मेरे पापने मुझसे तुम्हारे साथ विरोध कराया और अभिमानने तपश्चर्याक लिए भिजवाया व उसो. अमिमानके साथ तपश्चर्या भो की परन्तु उपयोग नहीं हुआ। मेरे पुष्पने ही तुमको बुलाया, इसलिए मुझसे ही मुझे सुख हुआ । कहनेका तात्पर्य यह है कि पापसे दुःख व पुण्यसे सुखको प्राप्ति होतो है । परन्तु इसे विवेकपूर्वक न जानकर संसारमें हमें सुख-दुःख दूसरोंसे हुआ इस प्रकार अज्ञानी जोव कहा करते हैं। दुःख-सुखको समभावमें अनुभव करते रहनेपर आत्मसिद्धि होती है।
शरीरके संबंधसे होनेवाले सुख-दुःख सचमुच में स्वप्न के समान हैं। वे देखते-देखते नष्ट होते हैं।
परन्तु पवित्र आत्मसुख एक मात्र अविनश्वर है, उस समुद्रके सामने देवोंका सुख भी बिंदुमात्र है।
भद्र ! मेरे कर्म कठोर हैं । इसलिए उनको दूर करनेके लिए कठिन तपश्चर्या करनी पड़ी । परन्तु तम्हारे कर्म कोमल हैं। इसलिए भोगमठमें ही वे जारहे हैं। हमें इसी प्रकार मुक्ति जाने का था, इसलिए यह सब हुआ। तुम्हें उसी प्रकार सुखको भोगते-भोगते मुक्ति जानेका है, कर्मलेपके दूर होनेपर तो सब एक सरीखे हैं । फिर कोई अन्तर नहीं रहता है। इस प्रकार परमात्मा बाहबलि जिनने कहते हए भरतजीसे यह कहा कि अब हमें कैलास पर्वत को ओर जाना है तुम अब अपने नगरको चले जाओ।