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भरतेश वैभव
सम्राट्ने नागरांकको विश्रांति लेने के लिए कहकर महलमें प्रवेश
किया ।
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पाठक विचार करें कि भरतजीका पुण्यातिशय कितना विशिष्ट है । थोड़ी देरके पहिले वे चितामें मग्न थे । अपने पुत्रोंके संबंध में जो समाचार मिला था उससे एकदम बेचैनी हो रही थी । परन्तु थोड़े ही समय में वे चितामुक्त होकर पुनः हर्षसागरमें मग्न हुए । यह सब उनके पुण्यका हो प्रभाव है। वे नित्य चिदानन्द परमात्माको इस प्रकार आमंत्रण देते है कि
हे परमात्मन् ! तुम्हारे अंदर यह एक विशिष्ट सामर्थ्य है कि तुम बड़ीसे बड़ी चिंताको तिमिषमान में देते हो। इसलिए तुम विशिष्टशक्तिशाली हो । अतएव हे चिदंबर पुरुष ! सदा मेरे हृदय में अटल होकर विराजे रहो ।
हे सिद्धात्मन् ! आप आकाशमें चित्रित पुरुष रूप या समान मालूम होते हैं। क्योंकि आप निराकर हैं। अतएव लोग आपके संबंध में आश्चर्यचकित होते हैं । हे निरंजनसिद्ध ! मेरे हृदय में आप बने रहो ।
इसी पुण्यमय भावनाका फल है कि भरतजी बड़ी से बड़ी चितासे क्षणमात्रमें मुक्त होते हैं ।
इति नागरालापसंधि:
जनकसंदर्थन संधि
नागरांकको अयोध्याकी तरफ भेजकर युवराजने भी अयोध्या की ओर प्रस्थानकी शीघ्र तैयारी की। उसमे पहिले उन्होंने जो राजयोगका दिग्दर्शन किया वह अवर्णनीय है ।
जयकुमार, विजय व जयंतका बुलाकर विवाह के समय जो मनमें कलुषता हुई उसका परिमार्जन किया। युवराजने बहुत विनयके साथ