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________________ भरतेश वैभव सम्राट्ने नागरांकको विश्रांति लेने के लिए कहकर महलमें प्रवेश किया । ४० I पाठक विचार करें कि भरतजीका पुण्यातिशय कितना विशिष्ट है । थोड़ी देरके पहिले वे चितामें मग्न थे । अपने पुत्रोंके संबंध में जो समाचार मिला था उससे एकदम बेचैनी हो रही थी । परन्तु थोड़े ही समय में वे चितामुक्त होकर पुनः हर्षसागरमें मग्न हुए । यह सब उनके पुण्यका हो प्रभाव है। वे नित्य चिदानन्द परमात्माको इस प्रकार आमंत्रण देते है कि हे परमात्मन् ! तुम्हारे अंदर यह एक विशिष्ट सामर्थ्य है कि तुम बड़ीसे बड़ी चिंताको तिमिषमान में देते हो। इसलिए तुम विशिष्टशक्तिशाली हो । अतएव हे चिदंबर पुरुष ! सदा मेरे हृदय में अटल होकर विराजे रहो । हे सिद्धात्मन् ! आप आकाशमें चित्रित पुरुष रूप या समान मालूम होते हैं। क्योंकि आप निराकर हैं। अतएव लोग आपके संबंध में आश्चर्यचकित होते हैं । हे निरंजनसिद्ध ! मेरे हृदय में आप बने रहो । इसी पुण्यमय भावनाका फल है कि भरतजी बड़ी से बड़ी चितासे क्षणमात्रमें मुक्त होते हैं । इति नागरालापसंधि: जनकसंदर्थन संधि नागरांकको अयोध्याकी तरफ भेजकर युवराजने भी अयोध्या की ओर प्रस्थानकी शीघ्र तैयारी की। उसमे पहिले उन्होंने जो राजयोगका दिग्दर्शन किया वह अवर्णनीय है । जयकुमार, विजय व जयंतका बुलाकर विवाह के समय जो मनमें कलुषता हुई उसका परिमार्जन किया। युवराजने बहुत विनयके साथ
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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