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भरतेश वैभव उत्तीमत्तम मोती ही पैदा हो ऐसा भाग्य किस समुद्रको है । परन्तु सम्राट् । भरतके पुत्र तो एकसे एक बढ़कर हैं। सौंदर्यका यह समुद्र ही है । चक्रवर्ती की रानियोंको पुत्री हो या पुत्र हो, एक एकके गर्भ में एक एक ही संतानरत्न पैदा हो सकता है । ढेरके ढेर नहीं । इसलिए सौंदर्यका पिंड एकत्रित होकर हो यहाँ आता है।
इस प्रकार वे स्त्रियां उन कुमारोंको देखकर तरह-तरहसे बातचीत कर रही थीं । उनको वे स्त्रियाँ देख रही हैं । परन्तु वे कुमार आंखें उठाकर भी नहीं देखते । सीधा राजमहलकी ओर आकर वहाँपर हाथीको ठहरा, अपने परिवार सेना वगैरहको भेजकर स्वयं युवराज अपने भाइयोंके साथै हाथीसे नीचे उतरे।
बहुत विनयके साथ अपने भाइयों सहित अर्ककोति पिताके दर्शनके लिए मोतीसे निर्मित महलको ओर आ रहा है। भरतजी दूरसे आत हुए अपने पुत्रोंको देखकर मनमें ही प्रसन्न हो रहे हैं । उसी तरह पिताको दूरसे देखनेपर पुत्रोंको भी एकदम आनन्दसे रोमांच हुआ। वेत्रधारीगण सम्राट्के कुमारोंका स्वागत करते हुए कहने लगे कि स्वामिन् ! दिवराज सदृश युवराज आ रहे हैं, जरा उनको देखें। इसी तरह सुविवेकनिधि आदिराज भी साथ में हैं।
कुटिनोके वचन, परधन व परस्त्रीके प्रति चित्त न लगानेवाले, सत्यरूपी वनहारको कठमें धारण करनेवाले कुमार आ रहे हैं । इस प्रकार वचकठ व सुकंठने कहा । __ युवराज ! अपने पितामोका दर्शन करो। इसे देखनेका भाग्य हमें 'मिलने दो। इस प्रकार वेत्रधर कहते थे, इतनेमें पिताके चरणोंमें मेंट रखकर युवराजने प्रणाम किया।
उसी समय आदिराजने भी उसी तरह पिताके चरणों में प्रणाम किया। तदनन्तर सभी भाइयोंने भी प्रणाम किया । दोनों कुमारोंको योग्य आसन देकर बैठने के लिए इशारा किया। परन्तु बाकी पुत्रोंने जब नमस्कार किया तो भरतजीको हँसी आई 1 क्योंकि ये तो परदेशसे नहीं आये । फिर इन्होंने भी प्रणाम क्यों किया? सम्राट्ने प्रकट होकर कहा कि वृषभराज ! हंसराज ! तुम लोग उठो, बहुत थक गए हो ! तुम लोगोंने आज मुझे नमस्कार क्यों किया ? उसका क्या कारण है । बोलो।
तब वृषभराजने बहुत विनयसे निवेदन किया कि पिताजी ! हमारे -स्वामी जब आपके चरणोंमें नमस्कार करते हैं वो लोग घमंडसे खड़े