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मरतेश बेमय
स्वामोने हाथ डाला तो क्या वह रह सकती है ? यह तो ठीक उसी तरहकी बात है कि एक मनुष्य देवालयको शरणस्थान समझकर जाता हो और देवालय हो उसपर पड़ता हो । यह सचमुच में मेरे पापका उदय है । जब स्वामी हो सेवकके तेजको कम करनेका प्रयत्न कर रहे हैं उस हालतमें जीवित रहना क्षत्रियपुत्रका धर्म नहीं । इसलिए युद्धकर प्राणत्याग करनेके लिए में हुआ। राजकुमार मैं आज जब साक्षात् मेरी स्त्रीके अपहरण होते हुए अपने अभिमान के रक्षण के लिए मरनेको तैयार नहीं हुआ तो कल राज्याभूषण वगैरह इनामके मिलनेपर मी तुम्हारे अभिमानके लिए कैसे मर सकता हूँ । इसलिए मैंने सामना करनेका निश्चय किया, अब जो कुछ भी करना हो करो, तुम समर्थ हों ।
विशेष क्या ? आप लोग मेरे स्वामी भरतसम्राट्के पुत्र हैं, इसलिए मैं डर गया हूँ । यदि और कोई इस प्रकार सामना करनेके लिए आते तो उनको जीवंत चिरकर दिग्बलि देता" इस वाक्यको कहते हुए जयकुमार कोधसे लाल हो रहा था ।
पुनश्च - तुम्हारी सेना के साथ मैंने युद्धकी तैयारी जरूर की। परन्तु विचार करो राजकुमार ! दूसरे कोई मेरे साथ युद्ध करनेके लिए आते तो सबको रणभूतका आहार बनाता । सामने शत्रु युद्धके लिए खड़े हों उस समय उनके साथ युद्ध न करके अपने स्वामीके पास जाकर रोये, यह वीरोंका धर्म नहीं । तुम्हारे पिताजीके द्वारा पालित व पोषित में सेवक हूँ । राजकुमार ! आप क्यों कष्ट लेकर आये ? आप अपने साथियोंको भेज देते तो ठीक होता । परन्तु मुझपर चढ़ाई करने के लिए आप स्वतः हो तशरीफ ला रहे है ।
तब मदिराजने मेधेशका उत्तर दिया ।
जयकुमार ! सुनो, हम लोगोंको आकर उन्होने यह कहकर फँसाया कि सुलोचनाने किसीके भी गलेमें माला नहीं डाली थी । इसलिए हमने स्वीकृति दी । युद्ध करके दूसरोंकी स्त्रीको लाने के लिए क्या हम कह सकते हैं ? किनकी स्त्रियोंको कौन मांग सकते हैं ? क्या यह सज्जनोंका धर्म है । यदि ऐसा करें तो हमें परनारीसहोदर कौन कह सकते हैं। इस प्रकारकी उत्तम उपाधिको छोड़कर हम लोग जीवंत कैसे रह सकते हैं। हमारे चरित्र के अंतरंगको क्या तुम नहीं जानते ?
अपनी स्त्रियोंको कौन दे सकते हैं। यदि देवें तो भी वह दष्टके