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भरतेश वैभव
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इस प्रकार राजमहलमें व सेना में नियम लेकर सबने तीन दिन तपश्चर्या के साथ व्यतीत किया। अपनी सेनाके साथ तपमें भरतेश्वर मग्न हैं । इस सामर्थ्य से स्वर्गलोक भी कंपित हुआ । इस समाचारको सुनकर सुनंदादेवी (छोटी माँ ) भी अपने पुत्रको देखनेके लिए आई । पौदनपुरमें स्वतः तीन उपवास कर विमानारूड होकर सुनंदादेवी आई हैं और महलमें पहुँचकर उन्होंने भरतेशको देखा। अपनी छोटी माँके आनेपर भरतेश्वरने, परमात्माको भक्तिसे नमस्कार कर आँख खोल ली । परन्तु आँखें आँसू भर गई। एकदम उठकर सम्राट्ने छोटी माँके चरणों में मस्तक रखा । माता ! अपराधी के पास आप क्यों आई ? इस प्रकार दुःखके आवेगसे भरतेश्वरने कहा। उत्तरमें सुनंदादेवी कहने लगी कि बेटा ! इस प्रकार मत बोलो। तुम अपराधी नहीं । तुमने क्या किया ? उसने तुम्हारे साथ थोड़ा अभिमान किया व चला गया । इसके लिए तुम क्या कर सकते हो ? दोष तो मूर्खोसे हो सकता है । बेटा ! तुमसे क्योंकर हो सकता है ?
भरतेश्वर जननी ! मेरी दोनों माताओंको मैंने कष्ट दिया । बहुओंको तपश्चर्याके लिए जाते हुए स्वप्न में नहीं, प्रत्यक्ष देखा माता ! यह सब मेरे कारणसे हुआ न ? फिर मेरे लिए दोष क्यों नहीं ?
सुनंदादेवी बेटा ! उनका दैव उन्हें लेकर चला गया। हमें भी थोड़ा दुःख हुआ । परन्तु तीन दिनके बाद वह उपशात हुआ । इसमें तुम्हारा क्या दोष है ? भूल जाओ इस दुःखको । मैंने पहिलेसे उसे बहुत समझाया कि तुम युद्ध मत करो, भाईके साथ युद्धके लिये नहीं जाओ, बेटा ! मुझे फँसाकर चला आया, मैं भाईको नमस्कार कर आता हूँ, यह कहकर चला आया । तुमने उसके साथ जो अच्छे व्यवहार किये बहू भी मैंने सुन लिये। क्या करें, तुम्हारी दातको भी नहीं मानकर चला गया । जाने दो। नीतिमार्ग व मर्यादाको उल्लंघन कर जो आते हैं के अपने आप ही लज्जित हो जाते हैं। इसमें तुम्हारा क्या दोष है ? व्यर्थ ही दुःख कर शरीरशोषण मत करो बेटा ! चिता ही बुढ़ापा है और सन्तोषही जवानी है। इसलिये तुझे मेरी शपथ है; शोक मत करो । सब लोग गये तो क्या हुआ ? यदि तू अकेला रहा तो भी हम लोगोंको सन्तोष होगा, इसलिये क्षमा करो ।
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भरतेश्वरके चित्तमें थोड़ीसी शान्ति आई । उसी समय भरतेश्वरके पुत्र व रानियोंने आकर सासुके चरणों में नमस्कार किया। सबको सुनंदादेवीने आशीर्वाद दिया। तदनंतर भरतेश्वर व सुनंदादेवी यशस्वती