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भरतेश वैभव बाद वह खिन्न मन होकर चला गया | यहाँ आकर उसने दीक्षा ली। मोक्षमार्गका उपवेश सुता, बादमें आत्मनिरीक्षण करने के लिए जंगल चला गया। परंतु वहाँपर भी मनमें शल्य है कि यह क्षेत्र चक्रवर्तिका है। इस लिए उसने मनमें निश्चय किया है कि इस भरतके क्षेत्रमें अन्नपानको ग्रहण नहीं करूंगा। समस्त पापो जलाकर एकदम मुक्तिनकोलो जाऊँगा इम विचारसे वह खड़ा है। अतएव गर्वके कारणसे ध्यानकी सिद्धि नहीं हो रही है।
पर्वतके समान खड़ा होनेपर क्या होता है परन्तु गर्वगलित नहीं होता है, तुम्हारे राज्यपर खड़ा हूँ, इस बातका शल्य मन में होनेसे आत्मनिरीक्षण नहीं हो रहा है। भरत ! व्यवहारधर्म उसे सिद्ध है, परन्तु निश्चयधर्मका अवलंब उसे नहीं हो रहा है। जरा भो कषायांश जिनके हृदय में मौजूद हो उनको वह निश्चयधर्म साध्य नहीं हो सकता है। एक वर्षसे उपवासाग्नि व कषायाग्निसे जल रहा है, परन्तु कुछ उपयोग नहीं हुआ, आज तुम जाकर घंदना करोगे तो उसका शल्य दूर होता है और ध्यानकी सिद्धि होती है। आज उसके घातिकर्म नष्ट हो जायंगे। उस मुनिको केवलज्ञान सूर्यका उदय होगा। इसलिए "तुम अब जाओ" ! इस प्रकार कहनेपर भरतजी वहाँस गजविपिन तपोवनकी ओर रवाना हुए।
बड़ा भारी भयंकर जंगल है, सर्वत्र निस्तब्धता छाई हुई है , आगके समान संतप्त धूप है । अपनी दोध भुजाओंको छोड़कर आँखोंको मींचकर अत्यन्त दृढ़ताके साथ बाहुबलि योगी खड़े हैं। भरतजीको आश्चर्य हुआ।
तीन धूपमें खड़े हैं, शरीरतक बाँबी उठी है. धूपसे लतायें सुख कर शरीरमें चुभने लगी हैं। विद्याधरी स्त्रियों ब्राह्मो और सुन्दरीके रूपको धारण कर उन लताओंको अलग कर रही हैं।
सज्जनोत्तम भरतजोने उसे दूरसे देख लिया व "भुजलि योगोश्वराय नमो नमो विजारात्मने नमोस्तु" इस प्रकार कहते हुए उनके चरणोंमें मस्तक रक्खा । तदनन्तर मुनिराज बाहुबलिके सामने खड़े होकर इस प्रकारके वचनोंका उच्चार किया जिससे वह दुष्ट कर्म घबराकर भाग जावे। भरतजोने कहा
गुरुदेव ! आपके मनमें क्या है यह सब कुछ मैं पुरुनाथसे जान कर आया है। इस पृथ्वीको आप मेरी समझ रहे हैं यह आश्चर्यको बात है। जिस पृथ्वीको अनेक राजाओंने पहिले भोग लिया है और जिसका शासन वर्तमानमें मैं करता हूँ, भविष्यमें दूसरे कोई करेंगे, ऐसो वेश्यासदृश इस भूनारीको । मेरो समझ रहे हैं । क्या यह बुद्धिमानोंको उचित है ?
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