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भरतेश वैभव
४३९ संतोष हुआ। तदनंतर परमात्माके स्मरण करते हुए अंतःपुरकी ओर गया । रानियोंको बड़ा हर्ष हुआ। पट्टरानी के पास चटकर सम्राट् आनंदवार्ता कर रहे हैं। देवी ! तुम्हारा जन्म यहींपर हुआ था, परंतु तुम्हारा पालन-पोषण विजयार्धपर्वतपर हुआ । तथापि पुण्यने पुनः लाकर इस नगर में प्रविष्ट कराया। उत्तरमें सुभद्रादेवीने कहा कि नाथ ! ठीक है, मेरे देवका निरोग ही ऐसा था कि मेरा जन्म यहाँ होना चाहिये, और विवाह उत्तर खंडमें होना चाहिए, उसे कौन उल्लंघन कर सकता है ? मेरी सहोदरियोंके साथ पहिले पाणिग्रहण होकर अंत में आपके साथ मेरा विवाह हो गया. यह भी देव है। तब इतर रानियोंने कहा कि जीजी ! वैसी बात नहीं है। तुम और तुम्हारे स्वामी के योगसे सर्व दिशाओंको जीतने के कार्यमें हम लोगोंको आनंद पानेका योग था। स्वामी और तुम यहाँ उत्पन्न होकर आपकी जन्मभूमिको हमें बुलवाया बड़ा आनंद हुआ। तब भरतेश्वरने कहा कि वह पुर क्या ? यह पुर क्या ? भोगोपभोगमें रहनेवालोंके लिए सभी स्थान समान हैं । व्यर्थ ही मा डोस निगान क्यों कर रही है। इस भरतेश्वरने समाधान किया। __ अब एक वर्षके बाद हर्ष के साथ भरतेश्वर पिताके पास जायेंगे। वहींसे योगविजयका प्रारंभ होता है । भरतेश्वर अपने समस्त सुखांगके साथ विघ्नरहित दीर्घ राज्यको वश में करके अयोध्यानगरसे प्रवेश कर अगणित राजाओंको अपने-अपने राज्योंमें भेजकर अयोध्यामें आनंदमग्न हैं। उत्तरमें हिमवान् पर्वत व तीनों भागोंसे समुद्रात स्थित पृथ्वीको अपने आधीन कर सम्राट भरतेश्वर अपने स्थानपर सुखसे आसीन हैं।
भरतेश्वरका पुण्य प्रबल है। उन्होंने लीलामात्रसे दिग्विजय किया। उन्हें कोई भी प्रकारका विघ्न नहीं आया इसका विशिष्ट कारण है । वे सदा भावना करते हैं कि-हे परमात्मन् ! आप ध्यान चक्र के द्वारा कर्मशत्रुओंको भगाकर जानसाम्राज्यके अधिपति बनते हैं। इसलिए आप सुखके दरबारमें आसीन होते हैं। अतएव मेरे अन्तरंगमें बने रहें। विख्यातमहिम ! विश्वाराध्य ! विमलपुण्याख्यान ! बोधनिधान ! शिवगुणमुख्य ! सौख्यांम ! हे निरंजनसिद्ध ! मुझे सन्मति प्रदान कीजिये।
इति नगरीप्रवेशसंधि ।
इति दिग्विजयनामक द्वितीयकल्याणं संपूर्णम्