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भरतेश वैभव
४३५ पुत्रोंको हजारों हाथियों पर चढ़ाकर शाह अहोगाम : परले २३ आनेपर अयोध्यानगरका भाग्य द्विगुणित हुआ।
कोई उस समय कहने लगे कि जबसे स्वामी यहाँसे सेना परिवारके साथ गये हैं, अयोध्याकी प्रजायें दुःख कर रही हैं । अपने नगरको दुःखी बनाकर दुनियाका संरक्षण करना क्या यह राजधर्म है ? दूसरा व्यक्ति कहने लगा कि राजन् ! लोकविजयके लिए तुम्हारे जानेकी क्या जरूरत थी, तुम अयोध्यामें सुखसे रहकर नौकरोंको भेजते तो वे ही बगमें कर लाते, तुम्हारे घूमनेकी क्या जरूरत थी? एक मनुष्य कहने लगा कि हम लोग जाकर राजाओंसे कहते कि भरतेश्वरकी शपथ है, तुम लोगोंको आना होगा, तो उस हालतमें कौन राजा ऐसा है जो तुम्हारी मेवामें नहीं आ सकता था। ऐसी अवस्थामें परिवार क्यों एक-एक नौकर ही जाकर यह काम कर सकता था। दूसरा बोलता है कि अस्त्र-शस्त्रोंकी आवश्यकता नहीं, सेनाकी जरूरत नहीं राजन् ! राजाओंको केवल तुम्हारे नामको कहकर पकड़कर मैं ले आता। एक घास बेचनेवाला कहता था कि स्वामिन् ! ध्यर्थ ही दुनियामें घूमकर क्यों आये? मुझे अगर भेजते तो मैं सबको घासके समान बांधकर ले आता।
इस प्रकार वहाँ हर्षातिरेकमें लोग अनेक प्रकारसे बातचीत कर रहे थे । भरतेश्वर उसे सुनते हुए, लोगोंको अनेक प्रकारसे इनाम देते हुए राजमार्गसे जा रहे हैं। अपने स्तुति करनेवालोंको एवं कनकतोरण रत्नतोरणादिकको देखते हुए भरतेश्वर आगे बढ़ रहे हैं। सबसे पहिले वे हाथीस उतरकर अपने पुत्रोंके साथ जिनमंदिर में पहुँचे । वहाँ पर भगवान् आदिनाथकी भक्ति व वंदना की और योगियोंकी भी त्रिकरण योगशुद्धिसे वंदना की। पुनः हाथीपर आरूढ़ होकर राजमहलकी ओर रवाना हये । राजमार्गकी शोभा अपूर्व थी। राजमंदिरके पास पहुँचकर सबको यथायोग्य विनयसे उनके लिए नियत स्थानमें भेजा व स्वयं जब-जयकार शाब्दकी गुंजारमें राजमहल में प्रविष्ट हो गये । रामियोंने अंदर जानेपर आरती उतारी, भरतेश्वर परमात्माको स्मरण करते हुए अंदर गये। असंम्वात कमलोंसे भरे हुए मरोवरके समान पुत्रकलत्रोंके समूहले वह राजमंदिर मालम हो रहा था । विशेष क्या ? विवाहके घरके समान जहाँ देखो वहां आनन्द ही आनन्द हो रहा है। षट्खण्डकी सम्पत्ति एक ही नगरमें एकत्रित हुई है । आठ-दस रोज आनन्दसे बीतने के बाद एक दिन दरबारमें उपस्थित होकर भरतेश्वरसे