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भरतेश वैभव फिर भी नहीं माना तो उसके हाथ पैर बांधकर शिविकामें रखकर, छोटी माँके पास रवाना करूंगा। यदि मुझे क्रोध आया तो उसे गेंदके समान पकड़कर समुद्र में फेंक सकता हूँ। इतनी शक्ति मुझमें है। परंतु छोटे भाईके साथ शक्तिको बतलाना क्या धर्म है ? दुनिया इसे अच्छी नजरसे देखेगी ? कभी नहीं। इसलिए ऐसा करना उचित नहीं होगा। दूसरे कोई आकर मेरे सामने इस प्रकार खड़े होता तो केवल इशारेसे उनके दांत गिराता। परंत अपने सहोदरके हृदयको क्या दुखा सकता है। यदि मैं ऐसा करूँ तो लोग यही कहेंगे कि हजार बात होनेपर भी भरत बड़े भाई हैं, बाहबलि छोटा भाई है, इसलिये विचार करना चाहिये। सो उसे अब किस उपायसे जीतना चाहिए?
फिर दक्षिणांककी ओर देखकर भरतेश्वरने कहा कि जाने दो ! उसे किसी प्रकार जीतेंगे। तुम शामके भोजन वगैरहसे निवृत्त होकर आये हो न ? तुम्हें बहुत कष्ट हुआ, बैंडो ! दक्षिगांक बैठ गया। तदनन्तर दक्षिणांकको गुलाबजल व तांबुलको दिलाकर कहा कि दक्षिण ! व्यर्थ हो खिन्न नहीं होना । मैं जानता हूँ कि तुमसे कार्य जिंगड़ नहीं सकता है। मेरा शपथ है तुम मनमें दुःखित नहीं होना। उत्तरमें दक्षिणांकने कहा कि स्वामिन् ! मुझे कोई दुःख नहीं है, आपके चरणोंके दर्शन करते ही बह दुःख दूर हो गया । पहिले भनमें जरूर कुछ खिन्नता आई थी। परंतु अब बिलकुल नहीं है । इतने में सुविट आदि मित्रोंने, मंत्री आदि प्रधानोंने एवं मागधामर आदि व्यंतरोंने कहा कि स्वामिन् ! सूर्यके पास बर्फ, तुम्हारे पास दुःख कभी अधिक समयतक टिक सकता है ? कभी नहीं । भरतेश्वर कहने लगे कि अंदर मेरी स्त्रियाँ बाहर मेरे पुत्र व आप मित्रोंको यदि कोई दुःस्त्र हुआ तो क्या मेरा कोई भाग्य है ? इसलिए आप लोग बिलकूल निश्चित रहें। मैं हर तरहके उपायसे इस कार्यमें विजय प्राप्त करूँगा। वह मेरे भाई हैं, शत्रु नहीं हैं। अज्ञानसे अभिमान कर रहा है । आप लोगों के सामने उपायसे उसे जीत लंगा। आप लोग देखते जाएँ।
बुद्धिसागर मंत्रीने निवेदन किया कि स्वामिन् ! मैं एक दफे जाकर देखें ? तब भरतेश्वरने कहा कि उसे लोगोंकी कीमत मालूम नहीं हैं । इसलिए व्यर्थ ही किसीके जानेसे क्या प्रयोजन ? क्या दक्षिणांक अविवेकी है ? उसे जरा देखो, तुम लोग अव उसकी तरफ जाने के विचारको छोड़ो । तुममें और मुझमें अंतर क्या है ? उस अहंकारीको समझाना कठिन है। इसलिए अब जो भी होगा सो मैं देख लंगा।