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मार्गदर्शक :- मानार्स श्री सविसागर जी महाराज १२४
भरतेश वैभव इसे मुनते ही हर्षके साथ 'बाहुबलि उठा और अपने बड़े पुत्र महाबलकुमारको उठाकर भरनेगके चरणोंमें रखा ।
भरतम्बर गे रहे हैं । परन्तु बाहुबलि हैस रहा है, बंधनबद्ध हाथी को छोड़नेपर जिम प्रकार वह प्रसन्नतासे जंगलको जाता है, उसी प्रकार बाहुबलिने प्रसन्नतासे मवको हाथ जोड़कर वहाँसे समस्त संगको छोड़कर जा रहा है । सेना आश्चर्य के साथ उसे देख रही है।
इतने में एक बड़ी दुर्घटना हुई । भरतेशके बड़े भक्त कुटिलनायक शठनायक दो मित्रों को बाहुबलि भरतेशके विरुद्ध होकर खड़ा हुआ, इस बातका बहुत दुःख हुआ था। सेनाके समस्त सज्जनोंकी दृष्टिमें भरतेश व बाहुबलि दोनों स्वामी हैं । परन्तु कुटिलनायक शठनायकको सम्राट्के प्रति अत्यधिक भक्ति है। इसलिए दूसरोंकी उन्हें परवाह नहीं है । वे समझ रहे हैं कि हमारे स्वामी भरतेशके लिए अनुकूल होता तो यह बाहुबलि हमारे लिए स्वामी हैं, जब हमारे स्वामीके साथ इसने विरुद्ध व्यवहार किया तो यह हमारा स्वामी कैसे हो सकता है ? इसलिए कुछ दूर वे दोनों बाहुबलिके पीछे गये व बोले ।
हे भागफूट बाहुबलि ! गुनी, भरलेश्वरको नमस्कार कर सुखसे तुम नहीं रह सके, जाओ, दीक्षाके लिए जाओ ! अब भिक्षाके लिए तो भरतेशके राज्यमें ही आना पड़ेगा न ? सोनेके लिए, खानेके लिए तपश्चर्याके लिए भरतेशके राज्यको छोड़कर अन्य स्थान तुम्हारे लिए कहां है ? जाओ ! बाह्यविवेकियोंके राजा ! जाओ!
राज्यमें रहकर आराममे मुख भोगनेका भाग्य तुम्हें नहीं है, अब फिरकर खानेका समय आ गया है। भाईके द्रोहके कर्मफलको इसी भवमें अनुभव करो, पधारो, पधारो ! राजन् ! भीग्न मांगकर भोजन करो, घाँस-काँटोसे भरे जंगलमें सोओ। यह तुम्हारी दशा हो गई है । इस प्रकार बाहुबलिको चिढ़ाने हुए हंस-हंसकर ताली बजाकर बोल रहे थे।
हृदय में शांतिको धारण करते हुए बाहुबलि जा रहा था। परन्तु इनके क्रोधातपादक बचनों को सुनकर जरा पीछे फिरकर कोपदृष्टिसे उसने देखा । फिर मनमें विचार आया कि तपश्चर्याक लिए मैं निकला है । अतः गम खाना मेरा कर्तव्य है।
बाहुवलिके मित्र, मंत्री व सेनापतिने भी भरतेश्वरसे प्रार्थना की कि हमें भी दीक्षा लेने के लिए अनुमति दीजियेगा, भरतेश्वरने बहुत रोकने के लिए प्रयल किया परन्तु वे राजी नहीं हुए। वे वाहूबलिको