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भरतेश वैभव
४०१ क्या उचित है ? आपका वाण वक्र हो तो क्या हुआ। आपको वक्र नहीं होना चाहिये । लोगोंके साथ युद्ध करना कदाचित् उचित हो सकता है, परन्तु बड़े भाईके साथ युद्ध करना कभी ठीक नहीं है, यह तो चंदनमें हाथ जलने के समान है । देव ! आप विचार कीजिये, मेरी बड़ी वहिन बहाँपर भरतेश्वरके पास है, मैं यहाँपर हूँ। ऐसी अवस्थामें आप इस प्रकार विचार करते हैं, क्या यह उचित है ? एक घरकी कन्याओंको लाकर साढ़-साद प्रेमसे रहते हैं। परन्तु आप अपने व्यवहारसे मेरी बहिन से मुझे अलग करा रहे है। स्वामिन् ! नमिराज विनमिराजको ओर जरा देखिए । वे आपसमें कितने प्रेमसे रहते हैं। आप लोग इस प्रकार रीत छोड़कर आपस में झगड़ा करें तो वे तो छोटे बडे भाईके पुत्र हैं। आप दोनों तो एक ही पिताके पुत्र हैं ऐसी अवस्थामें शत्रुओंके समान आप लोग युद्ध करें, यह क्या अच्छा मालम होगा? ऐसी अवस्थामें नमि, विनमि क्या कहेंगे? सम्पत्तिमें आप लोग बड़े हैं, के गरीब हैं। परन्तु आप व उनके माता-पिताओंका सम्बन्ध हआ है । इसलिए समान हैं । वे अवश्य बोलेंगे ही। जीजाजी ( भरतेश्वर ) के उत्तम गुणोंको हम सुनती हैं तो आपके इस विरोधके लिये कोई कारण नहीं है । इसलिये हमारी प्रार्थनाको स्वीकार करना चाहिये। इस प्रकार इच्छामहादेवी ने कहा।
बाहुबलिने उत्तरभे कहा कि देवी ! तुम्हारे जीजाजी (भरतेश्वर } में ऐसे कौनसे गुण हैं ! तुम्हारे भाईको उसने नमिराज कहकर पुकारा, इस बातको सब लोग वर्णन करते हैं। इसलिये तुम तेलको भी धी कहने लगी। उत्तरमें पट्टरानीने कहा कि स्वामिन् ! ऐसी बात नहीं । भरतेश्वर राजाग्रगण्य हैं । वे दूसरोंको राजा कहकर नहीं बुला सकते। मेरे भाईको ही उन्होंने राजाके नामसे बुलाया। इस प्रकारका भाग्य किसने प्राप्त किया है । यही क्यों ? उनके दरबारमें पहुंचते ही सिंहासनसे उठाकर मेरे भाईका स्वागत किया, आलिंगन दिया एवं उसे उच्च आसन दिया। क्या यह कम भाग्य है ? विशेष क्या ? हमारे भाई उसके मामाके बेटे कहलाते हैं। यही हम लोगोंके लिए बड़े सौभाग्यकी बात है। इसलिये आप बहुत प्रेमसे उनसे मिलें व हमें संतुष्ट करें।
इतने में चित्रायती रानी कहने लगी जीजी ! तुम ठहरो। मैं भी थोड़ा सा निवेदन करती हूँ। बाहुबलिकी ओर देखकर स्वामिन् ! आप सुखी हैं, अतः लोकमें आप सबके लिए सुख ही उत्पन्न करते हैं ।