________________
४१८
भरतेश वंभव
किया है । अतएव मुझे मन्मथके नामसे कहने में कोई हर्ज नहीं है। देखो कर्म की गति विचित्र है । कहाँ तो मैं बहुत उग्रता से युद्ध के लिए तैयारीसे आया और कहाँ युद्धरंग में आकर खड़ा हुआ ! और भाईके मृदु वचनको सुनकर क्षणमें शांत हुआ ! राचमुत्रमें कर्म की दशा क्षण-क्षण में बदलती है। मंत्री व मित्रोंने कितने विनय व अनुनयसे मुझे समझाया, मातुश्रीने कितने प्रेमसे उपदेश दिया। मेरी समस्त रानियोंने कितने प्रेमसे कहा, परंतु किसीका न सुनकर सबको फंसाकर चला आया । जिन ! जिन ! मैं बहुत बड़ा दुष्ट हूँ। यह भी जाने दी ! मेरे भाईके पुत्र मुझे देखने के लिए आये । तब भी मेरा हृदय नहीं पिघला । मैंने उनका तिरस्कार किया, सचमुच में मैं मदन नहीं हूँ, मेरा हृदय पत्थरका है । अर्हन ! मेरे लिए धिक्कार हो । सब लोगोंने नीतिके उपदेशको देते हुए तुम्हारे भाई है, अग्रज है, इत्यादि शब्दसे भरतेश्वरको कहा, परंतु मैंने तो वह है, यह है, राजा हैं, चक्रवर्ती हैं आदि व्यंग शब्दोंसे ही उसका संकेत किया, भाईके नामसे नहीं कहा, कितना कठोर हृदय है मेरा ! लोकके सामने बड़े भाईने अपनी हार बताई । चक्ररत्नको धक्का दिया गया । त्रिलोकमें विशिष्ट चक्ररत्नका अपमान हुआ । यह सब मेरे कारणसे हुआ, सचमुच में यह मेरे लिए लज्जाकी बात है | अपयशरूपी कलंक मुझे लग गया। अब इस कलंकको घरपर रहकर धो नहीं सकता । तपश्चर्यासे ही इसे धोना चाहिए, इस प्रकार बाहुबलिने विचार किया। मोहनीय कर्मका उपशम होनेपर इस प्रकार का परिणाम हो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ?
I
पुनः विचार करने लगा कि पत्थरके समान मैं भाईके सामने खड़े होकर पुनः राज्य करूँ तो दूसरे राजाओंके ऊपर क्या प्रभाव पड़ेगा और वे क्या विचार करेंगे ? इस सभा में जिन राजाओंने मुझे देखा है वे मुझे बहुत ही तिरस्कृत दृष्टिसे देखेंगे |
इसलिए अब दीक्षा के लिए जाना ही अच्छा है। इस प्रकार विचार कर बाहुबलिने भाई की ओर न देखकर एकदके शान्त नेत्रोंसे समस्त सेनाको देखा । आकाश और भूतलपर व्याप्त उस विशाल सेनाको जब बाहुबलिने देखा तो सेनाने नमस्कार किया, बाहुबलि लज्जित हुए । उन्होंने विचार किया कि मुझे ये नमस्कार क्योंकर रहे हैं ? उन्होंने दूसरी ओर देखा, उधरसे विजयार्धदेव, हिमवन्तदेवने बहुत भक्तिसे बाहुबलिको नमस्कार किया। पुनः बाहुबलिको बहुत बुरा मालूम हुआ। उन्होंने दूसरी ओर मुख फेरा। उधरसे मागधामर, नाटधमाल,