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भरतेश वैभव नहीं । अतएव कामदेवकी शक्ति व सार्वभौम सम्राट्की शक्ति कभी समान नहीं हो सकती है । कामसेवन, भोजन, पृथ्वी व पर्वतस्थित सर्व सेनाओंके पालनमें कामदेव चक्रवर्तीकी सामना नहीं कर सकता है। ___ चक्रवर्तीने सर्व सेनाओंके सामने अपनी पराजयको स्वीकार किया, चक्ररत्नको बाहुबलिके पासमें जानेके लिए धक्का दिया । स्वतः छोटे भाई ही बड़े भाईके लिए बक्री बन गया। यही कालचक्रका दोष है। चक्रको जिस समय भरतेश्वरने धक्का दिया, व जाकर थोड़ी दूरपर ठहर गया, क्योंकि उसे धारण करनेका पुण्य बाहुबलिको नहीं था और उसे खोलनेकी पूण्यहीन अवस्था भरतेश्वरको नहीं आई थी। परन्तु कल्पनाकी जाती है कि वह चक्ररत्न कामदेवकी सेवामें जाकर खड़ा हआ। लोको निमम निवाबी गिमा समय अपने शत्रुके प्रति चकका प्रयोग करता है, वह शत्रुके वशमें होकर अर्धचक्रवर्तीको ही मार डालता है परन्तु सकलचक्रवर्तीका चक्न सामनेके राजासे हार कभी खा सकता है, कभी नहीं। __ जब सम्राट्ने तीन मृदुयुद्धोंके लिए मंजूरी दी थी फिर वह चक्र रत्नके द्वारा भाईपर आक्रमण कैसे कर सकते हैं, क्या भरतेश सदृश भव्यात्मा अपने भाईके प्राणघातकी भावना कर सकते हैं ? युद्धमें भाई कर भंग न हो, एवं उसके चित्तमें दुःख होकर वह दीक्षाके लिए नहीं चले जावें इसलिए भरतेश्वरने सगुणपूर्ण वचनोंसे ही उसे जीत लिया। दीक्षा लेने के बाद कुछ क्षणों में ही मुक्ति पानेवाले मंदकषायीके हृदयमें
र गुण कैसे हो सकते हैं ? " बाहुबलिके चित्त बराबर व्यथित हो रहा है। उसे बहुत अधिक पश्चात्ताप हुआ। उसने भरतेशकी ओर शांत हृदयसे देखा व कहने लगा कि भाई मुझे क्षमा करो! मेरे सर्व अपराधोंको भूल जाओ । उत्तरमें भरतेश्वरने कहा कि भाई ! तुम्हारा कोई भी अपराध नहीं है । तुम्हारी किसी भी वृत्तिपर मुझे असंतोष नहीं है। मेरे हृदयमें बिलकूल तुम्हारे लिए अन्यथाभाव नहीं है।
बाहुबलि - भाई ! मैंने तुम्हारे प्रति दूषण-व्यवहार किया, तो भी आपने तो मेरे प्रति भूषण-व्यवहार किया । दोष मेरे हृदयमें थे। इमलिए वे मुझे ही दुःखी बना रहे हैं। आपके हृदय में दोष न होनेसे परमसंतोष हो रहा है।
भरतेश्वर - कामदेव ! भाई ! ऐसा मत बोलो! तुम और मैं कोई अलग नहीं हैं । इस प्रकार दुःखी मत होओ, मुझे बिलकुल कष्ट नहीं हुआ है।