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भरतेश वैभव
मनमें खिन्न होते हुए मौनसे जा रहा है। मुख उसका फीका पड़ गया है । उसे देखकर लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे ।
"कल यह आया उस समय बहुत हर्ष के साथ आया था, अब वापिस लौटते समय बड़ी चिंतासे युक्त जा रहा है। सचमुच में राजाओं की सेवा करना बड़ा कठिन कार्य है ।"
"इसने तो उचित बात कही थी, परन्तु हमारे राजा कुद्ध हुए । तथापि यह शिष्ट बहुत शांतिके साथ अपने स्वामी के पास जा रहा है । पर सेवा करना कष्ट है । "
"यदि किसी कार्य में सफलता मिली तो अपने राजाके पुण्यसे सफलता मिली ऐसा कहते हैं । यदि कार्य बिगड़ गया तो जो उस कामके लिए उसको दोष देते हैं। पर सेवा के लिए धिक्कार है ।"
भरत बड़ा भाई है, षट्खंडमें वह एक ही श्रेष्ठ राजा है । उसके साथ में इस प्रकारका व्यवहार क्या बाहुबलिको शोभा देता है ?" इत्यादि अनेक प्रकारसे पुरजन बात कर रहे थे। उन सबको सुनते हुए दक्षिणांक इधर-उधर न देखते हुए जा रहा था। सेवकोंने इधर-उधरसे आकर दक्षिणांककी सेवा करना चाहा। परन्तु आंखोंके इशारेसे उनको दूर जानेके लिए कहा। कोई स्तुतिपाठक दक्षिणांककी स्तुति कर रहे थे । उनको मुंह बंद करनेके लिए कहा। कोई सेवक चामर ढाल रहे थे, कोई तांबूल दे रहे थे, उनको उसने रोका। कोई सेवकोंने आकर पालकीपर आरूढ़ होने के लिए प्रार्थना की, उसके लिए भी इनकार किया। हाथीको सामने लाये तो भी उसे दूर करने के लिए कहा । घोड़ा दिखाने लगे, परन्तु यह उस तरफ न देखकर मौनसे ही जा रहा था । गुरुसेवा करनेसे च्युत शिष्यके समान, राजाकी सेवामें गलती खाये हुए सेवकके समान बहुत चिंताके साथ वह जा रहा था। किसी तरह बहू पोदनपुरके बाहरके दरवाजेपर पहुँचा । वहाँपर फिरसे
कोंने प्रार्थना की कि इस तरह पैदल जानेसे स्वामीकार्य में ही देरी होगी । इसलिए कोई बाह्नपर चढ़कर जाना चाहिए। दक्षिणांकको भी उनका कहना ठीक मालूम हुआ। उसी समय एक वेगपूर्ण घोड़ेको मँगानेके लिए आदेश दिया। घोड़ेपर चढ़नेके बाद नौकरोंने उसपर छत्र चढ़ानेकी कोशिश की, उसके लिए उसने इनकार किया । वाद्यघोष करने लगे तो इसने बड़े क्रोधसे उन्हें रोका। बेशर्मो ! स्वामीके कार्यमें जीत होनेपर हम लोगोंको महान् आनंदके साथ जाना चाहिए। कन्या तो नहीं हैं । पाणिग्रहणका केवल मंत्रोच्चारणसे क्या प्रयोजन ? साथ