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भरतेश वैभव
३७१ हुआ। इतने में सखराज नामक छोटा बच्चा आया। उसने हाथमें लिए हुए गिल्ली डंडेको वहाँ रखकर नमस्कार किया सब लोग हैसने लगे। सुखराज नामक बालकाने उसके आधे खाये हुए केलेको रखकर नमस्कार किया।
इस प्रकार सभी पुत्रोंके नमस्कार करनेपर रानियोंसे भरतेश्वरने प्रश्न किया कि इस प्रकार पुत्रों के नमस्कार करनेका क्या कारण है ? तब देवियोंने कहा कि हम नहीं जानती हैं । "क्या सचमुच में आप लोग नहीं जानती हैं ? तुम्हारी सासुके चरणोंकी शपथ ? भरतेश्वरने कहा। "इसमें शपथकी क्या जरूरत है? पिताके चरणोंमें नमस्कार करना क्या पुत्रोंका कर्तव्य नहीं ? इसमें आश्चर्यको क्या बात है ?" रानियोंने कहा। "तब इन छोटे बच्चोंने क्या समझकर नमस्कार किया होगा ?" भरतेश्वरने पुनः पूछा । बड़े भाईने नमस्कार किया. इसलिए सब लोगोंने नमस्कार किया। यह सब बड़े भाई अर्ककोतिकी महिमा है ! रानियोंने कहा । गत वान है ! अपलोग अपने बड़े बेटेकी प्रशंसा करती हैं । बस ! और कोई बात नहीं, इस प्रकार भरतेश्वरने कहा। ___ यशस्वतीने बीचमें ही कहा कि बेटा! तुम विवेकी हो, इसलिए तुम्हारे पुत्र भी तुम्हारे ही समान हैं और कोई बात नहीं।
माताजी ! उन्होंने अपने बड़े बेटेकी प्रशंसा की तो आपने अपने बड़े बेटेकी प्रशंसा की, यह मुझे पसन्द नहीं आई ! यह सब भरतेश्वरकी माताकी महिमा है, और कोई बात नहीं है । भरतेश्वरने कहा ।
इस बातको वहाँ उपस्थित सर्व रानियोंने, पुत्रोंने स्वीकार किया, सभी पुत्रोंको एक-एक दुपट्टा मॅगाकर दिये।
यशस्वतीने कहा कि बेटा ! तुम यह सब क्या कर रह हो ? बचपन अभी तुम्हारी गई नहीं ! यह एकान्त अभी नहीं रहा ! लोकान्त हुआ । इसलिए अभी यह कार्य मत करो।
माताजी ! आपके सामने मैं बच्चा ही हैं, राजा नहीं है। यदि यहाँपर बच्चोंसा व्यवहार न करूं तो और कहाँ कहें ? बाकी स्थानमें गौरवसे रहना चाहिए इस बातको मैं जानता है। भरतेश्वरने कहा फिर मन्त्रके बहानेसे मुझे फंसाया क्यों ? क्या वही मन्त्र था? माताने कहा ।
क्या मेरे पास मंत्रसामर्थ्य नहीं है ? देखियेगा। अच्छा ! सौ औरतें एक पंक्तिमें खड़ी हो जायें । इस प्रकार कहते हुए सौ दासियोंको एक