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भरतेश वैभव देवी उतर गईं । भरतेश्वरने जाकर साष्टांग नमस्कार किया। माताने रोका। परंतु भरतेशने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता, मैं नमस्कार करूँगा | यशस्वतीने कहा कि तथापि इस रास्तेमें क्यों? महलमें चलो! इस वादके बीचमें ही अर्ककीतिने एक कपड़ा वहाँपर बिछा दिया व कहा कि पिताजी ! अब नमस्कार करो। भरतेश्वरने भक्तिभरसे नमस्कार किया । भरतेश्वरको हाथसे उठाकर माताने आशीर्वाद दिया कि बेटा ! चढ़ती हुई जवानी न उतरे, एक भी बाल सफेद न हो, सूखसे बहुत दिनतक षट्खंडको अखंड रूपसे पालन करते हुए चिरकालतक रहो, बादमें क्षणमात्रमें मुक्तिलक्ष्मीको प्राप्त करो। उस समय दोनोंको रोमांच हुआ । आनन्दाश्रु बहने लगा । मातापुत्रका मोह अद्भुत है।
यशस्वतीदेवीने कहा कि बेटा! तेरा विसोग होकर मार हजार वर्षे हुए । आज मुझे संतोष हुआ, आज मिले।
अरहेत ! माता ! साठ हजार वर्ष हुए ? भरतेश्वरने आश्चर्यसे पूछा ! उत्तरमें यशस्वतीने कहा कि बेटा ! हाँ ! बराबर है। मैं प्रतिदिन गिनती थी। तदनन्तर अर्ककीतिने आकर दादीके चरणोंमें नमस्कार किया, उसी प्रकार बाकी पुत्रोंने भी आकर नमस्कार किया । भरतेश्वरने कहा कि माताजी ! जब दिग्विजयके लिये नगरसे निकले तब इसी अर्ककीतिका पालना हमारे साथ था । यह उस समय बच्चा था। ये सब बादमें उत्पन्न हए उसके सहोदर हैं। तब माताने अर्ककीति व अन्य पुत्रोंको आशीर्वाद देते हुए कहा कि बेटा ! तुम सरीखे भाग्यशाली लोकमें कौन है ? ये सब नरलोकके नहीं हैं, ये सुन्दर पुत्र सुरलोकके मालम होते हैं । सुरलोकसे तो नहीं लाये हो न ? बोलो तो सही। भरतेश्वरने उत्तरमें कहा कि माताजी ! पुत्रोंकी बात जाने दीजिये, आप विना सूचना दिये ही एकाएक कसे आई? इस प्रकार आना क्या उचित है ? सेनास्थानका शृङ्गार नहीं किया, नत्यवादकी कोई व्यवस्था नहीं की गई, आपके स्वागतके लिए मैं नहीं आ सका। बडे-बड़े राजा सजधजकर नहीं आ सके, मैं चाहता था कि आपके स्वागत के लिए असंख्यात रथ व पल्लकियोंको लेकर आऊँ । स्थान-स्थानपर अनेक दृश्यपात्रोंकी व्यवस्था नहीं हो सकी 1 क्या कहूँ ? मुझे आप की सेवा करने का भाग्य नहीं है। हमारी सेना इस सेवाके लिए योग्य नहीं है। यह गीत पात्र भी योग्य नहीं है। बड़ा दुःख होता है। में अनेक प्रकारसे सेवा करनेकी भावना कर रहा था, परन्तु उसे देखनेकी आकांक्षा आपके हृदयमें नहीं है। फिर आपने मुझे जन्म