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अरतेश वैभव
३५९ पुत्रोंने विनयसे कहा कि पिताजी ! जब आपके चरणकमलोंकी शपथपूर्वक हमने प्रतिज्ञा की है, फिर उससे अधिक जामीन क्या हो सकती है ? लोकमें आपसे अधिक और कौन है ? इसलिये हमपर विश्वास कीजिये।
भरतेश्वरने कहा कि मैं इस प्रकार विश्वास नहीं कर सकता। अपने बड़े भाई अर्ककीर्ति व आदिराजको जामीन देकर हमें निश्चय कराओ कि आप लोग अब नहीं जाओगे। अर्ककीतिने कहा कि जामीनकी क्या आवश्यकता है? आपके पाटकमलोंसे अधिक और ज्या जामीनकी कीमत हो सकती है ?
"नहीं ! अवश्य जरूरत है, इस तरह वचनबद्ध व जामीन पत्रबद्ध होनेसे फिर ये बिलकुल नहीं जा सकेंगे। इसलिये अवश्य जामीनपत्र होना चाहिये" भरतेश्वरने कहा। इतने में आदिराजने कहा कि व्यर्थ विवाद क्यों ? पिताजीकी जैसी इच्छा हो वैसा करें। अच्छा ! हम दोनों भाई इन दोनोंके लिए जामीन हैं। हम इनको जाने नहीं देंगे
और ये नहीं जायेंगे, इस प्रकार लिखकर दोनोंने हस्ताक्षर किया। जिनराज और मुनिराजने दोनों भाइयोंके चरणोंमें नमस्कार कर कहा कि भाई ! आप लोग विश्वास रखें कि हम कभी बिना कहे नहीं जायेंगे। आप लोग विश्वास रखें। __ "पिताजीके चरणस्पर्श ही पर्याप्त है" ऐसा कहते हुए दोनों भाइ. योंने उनका हाथ हटाया। जिनराज मुनिराजने विनयसे कहा कि पिताजी आपके लिए स्वामी हैं, हमारे लिए तो आप ही स्वामी हैं । इसी प्रकार अन्य हजारों पुत्रोंने कहा कि भाई ! आप दोनों तो इनके लिए जामीन हैं । परन्तु हम लोग सब पहरेदार हैं। फिर ये कैसे जाते हैं देखेंगे। मोक्षपथमें उन पुत्रोंका विनोद-व्यवहार कुछ विचित्र ही है। वह आनन्द सबको कैसे मिल सकता है।
सम्राट्को सन्तोष हुआ, सभी पुत्र अपने-अपने विमानपर चढ़कर सेनास्थानकी ओर जाने लगे। अर्ककीर्तिने भरतेश्वरसे कहा कि पिताजी ! आदिप्रभुने जो अपनी दिव्यवाणीमें कहा था कि दो पुत्रोंको बाल्यकालमें वैराग्य उत्पन्न हो जायेगा। उससे थोड़ा सबको दुःख होगा । प्रभुका वचन अन्यथा नहीं हो सकता है।
भरतेश्वरने कहा कि बेटा ! अभी तुमसे यही बात कहना चाहता था। परन्तु तुमने उसी को कहा।
"पिताजी ! आपने जब इनका नामकरणसंस्कार किया था, उस