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भरतेश वैभव
तो इस हायपर कपूरको रखो, दूसरा उसपर तेल डालो। फिर खुशीसे दोनों जाओ। जिनेंद्र भगवंतत्री शपथ है, मैं नहीं रोकूंगा । बोलते हुए भरतेश्वरकी आँखों आँसू बह रहा था। दोनों पुत्रोंका हृदय कँपने लगा। सभी पुत्र कम्पित होने लगे । अर्ककीतिने कहा कि आप लोगों के uttarh लिए धिक्कार हो । पिताजीने हाथ पसारकर विषको याचना की, इससे अधिक दुःखकी और क्या बात हो सकती है ? हम लोगोंन ऐसे अशुभ वचनकी सुने । हा! जिन ! जिन गुरुहंसनाथ ! (कान में उँगली डालते हुए अर्केकी तिने कहा ) दोनों पुत्रोंके मनमें भय उत्पन्न हुआ । एक दके पिता के मुखकी ओर देखते हैं और दूसरी दफे भाईके मुखकी ओर देखते हैं । आँखोंके पानीको निगलते हुए उनके चरणोंपर मस्तक रखकर कहा कि अब हम दीक्षाका नाम नहीं लेंगे। भरतेश्वरसे निवेदन करने लगे कि गिताजी ! हम लोग अनबन विचारके समान यह विचार किया था । उसे आप भूल जाऐं। आपको जो कष्ट हुआ उसके लिए क्षमा करें।
भरतेश्वरने दोनों पुत्रों को सन्तोषके साथ आलिंगन दिया, क्योंकि संतानका मोह बहुत प्रबल हुआ करता है ।
भरतेश्वरको बहुत सन्तोष हुआ दोनों पुत्रोंने क्षमायाचना की। पिताजी ! आपको कष्ट पहुँचाया । क्षमा करें। "बेटा ! ऐसा क्यों कहते हो ? मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ, उलटा इस समय मुझे आनंद आया" कहते हुए भरतेश्वरने उन बालकोंको समाधान किया ।
इतनेमें अर्ककीर्तिकुमार अपने विमानसे उतरकर पिताके पास आया और उसने भरतेश्वरके धारण किये हुए वस्त्राभरणोंको निकलबाकर नवीन धारण कराये और गुलाबजलसे मुख धुलवाया। चंदनका लेपन शरीरको कराया । इसी प्रकार अनेक प्रकार से शीतोपचार कर पिताकी सेवा की। भरतेश्वरने उन दोनों पुत्रोंसे प्रश्न किया कि जिनराज ! मुनिराज ! अब जो हुआ सो हुआ, घर जाने के बाद मुझे न कहकर तुम लोग गये तो क्या बोलो उत्तरमें पुत्रोंने कहा कि पिताजी ! हम आपसे पूछे बिना अब हरगिज नहीं जायेंगे । "मैं विश्वास नहीं कर सकता भरतेश्वरने कहा । तब पुत्रोंने कहा कि आपके पदकमलोंकी शपथ है, हम नहीं जायेगे । पुनः भरतेश्वरने कहा कि इससे भी मुझे संतोष नहीं होता है । कुछ न कुछ जामीन के रूपमें देना चाहिए। नहीं तो मुझे विश्वास नहीं हो सकता है ।