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भरतेश वैभव
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थे। तीर्थागमनसे लौटे हुए चक्रवर्तीका, मंत्री, मेनापति, मागध हिमवन्त, देव, बिसमानदेव आदि प्रमुग्होने अपमान सेनासा वागत किया । सर्वत्र जब-जयकार होने लगा । मर्वगङ्गार कराया गया था । समस्त सेनाओंके ऊपर जिनपाद गंधोदकको क्षेपणकर भरतेश्वरने यह भाव व्यक्त किया कि मेरे आश्रित समम्ल प्राणी मेरे ममान ही सुखी होवें। मभी प्रजाओंने सम्राट्की प्रशंमा की। सेनाका उत्साह, विनय, भक्ति आदिको देखते हुए सम्राट् महल में प्रवेश कर गये । वहाँपर रानियोंका उत्साह और ही था। वे स्वागतके दिए आरती दर्पण वगैरह लेकर खड़ी थीं। उन्होंने बहुत भक्तिसे भरतेश्वर की आरती उतारी । समवसरणकी पवित्रभूमिसे स्पृष्ट पवित्र चरणकमलोंको रानियोंने स्पर्श किया । पुत्रोंने भी माताओंके चरणों में डोक देकर समवसरण गमन, जिनपूजन आदि सर्व वृत्तांतको कहने के लिए प्रारम्भ किया। सब लोग इच्छामि इच्छामि कहते हुए सम्मति दे रहे थे। जिस समय माताओं के चरणों में वे पुत्र नमस्कार कर रहे थे, उस समय वे मातायें कह रही थीं कि आप लोग आज हमें नमस्कार न करें। क्योंकि आज आप लोग हमारे पुत्र नहीं हैं। तीर्थपथिक हैं। इसलिए तुम लोगोंको हमें नमस्कार करना चाहिये। इत्यादि कहते हुए रोक रही थीं। तथापि ये पुत्र नमस्कार कर रहे थे। भरतेश्वरको यह दृश्य देखकर आनन्द आ रहा था।
पुत्रवधुओंने भी आकर भरतेश्वरके चरणोंको नमस्कार किया।सबके ऊपर गंधोदक सेवन कर भरतेश्वरने आशीर्वाद दिया। इस प्रकार बहुन आनंदके साथ मिलकर नित्यनियासे निवत्त होकर सबके साथ भोजन किया व संतोषसे वह दिन व्यतीत किया।
भरतेश्वरका भाग्य ही भाग्य है। षटखंडविजयी होकर आते ही त्रिलोकीनाथ तीर्थकर प्रभुका दर्शन हुआ । समवमरणमें पहुँचकर वंदना क्री, पूजाकी, स्तोत्र किया। इस तरहका भाग्य सहज कैसे प्राप्त होता है ? भरतेश्वरकी रात्रिदिन इस प्रकारकी भावना रहती है । वे सतत परमात्मासे प्रार्थना करते हैं कि
हे परमात्मन् तुम सदा पापको धोनेवाले परमपवित्र तीर्थ हो, परमविश्रांत हो ! इसलिए तुम मुझसे अभिन्न होकर सदा मेरे हृदय में ही बने रहो।
हे सिद्धारमन् ! तुम ज्योतिस्वरूप हो, तेजस्वरूप हो, लोक विख्यात हो, तुम्हारी जय हो ! मेरे लिए नूतनमतिको प्रदान करो।