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भरतेश वैभव
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स्थानमें छह महीने से भी कुछ दिन अधिक व्यतीत हुए परन्तु उत्साहसे बीतने से वह समय बहुत थोड़ा मालूम हुआ ।
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एक दिन भरतेश्वर दरबारमें विराजमान हैं। उस समय बुद्धिसागर मंत्रीने आकर नम्रशब्दों में निवेदन किया । "स्वामिन्! तीन खंडका राज्य वश हो गया, अब विजयार्धके आगेके तीन खंडोंको वशमें करना चाहिये । इस स्थानमें अपनेको ६ महीने व्यतीत हुए। विजयार्ध गुफाकी अग्नि भी शांत हो गई है। अब आगे प्रयाण करने में कोई आपत्ति नहीं । उसलिए अब आता होती ओने आपके चरणों में स्त्रीरत्नोंको समर्पण किये हैं उनको भी अब यथोचित सत्कार करके सन्तोषके साथ अपने नगरोंको जानेके लिए आज्ञा देवें । क्योंकि उनको अपने साथ कष्ट होगा" इत्यादि । मन्त्रीके निवेदनको सुनकर उसी समय कुछ विचार कर भरतेश्वर महलकी ओर चले गये एवं अपने अनेक रूपों को बनाकर उन नवविवाहित खेचर-भूचरकन्याओके अंतःपुरमें प्रवेशकर गये। वहाँ जाकर उन्होंने उन स्त्रियोंसे कहा कि प्रियदेवी ! तुम्हारे पिता अब अपने नगरको जा रहे हैं। अब आगे क्या होना चाहिए, बोलो। देवी ! जाते समय तुम्हारे पिताका यथोचित सत्कार किया जायेगा । परन्तु तुम्हारी माता यहाँपर नहीं आई हैं। ऐसी हालत में मैं उनको कुछ भेंट करना चाहता हूँ, बोलो। उनको क्या प्रिय है | कौनसे पदार्थ में उनकी इच्छा रहती है। आभूषणों में उनको कौनसा प्रिय है । वस्त्रोंमें कौनसी साड़ी उनको पसंद है एवं अन्य भोग्य पदार्थों में उन्हें कौनसा इष्ट है ? उनको जो पसन्द है उसे ही में भेजना चाहता हूँ । आप लोग बोलो ।
भरतेश्वरकी वातको सुनकर वे कुछ जवाब न देकर हँस रही हैं। फिर भरतेश्वर पूछने लगे कि तुम्हारी माताकी क्या इच्छा है, बोलो तो सही । पुनः वे हँसने लगीं । पुनः भरतेश्वर -- 'अच्छा हमारी सासकी क्या इच्छा है बोलो तो सही' कहने लगे। परन्तु वे स्त्रियाँ पुनः हँसने लगीं। जब भरतेश्वरने आग्रहपूर्वक पूछा तो उन्हें आखिर कहना पड़ा । भरतेश्वरने अपने सामने ही सभी वस्त्र, आभूषण भेंट आदिको बँधवाये व उनकी दासियोंको बुलाकर कहा कि इन्हें ले जाकर मेरी सासुओंके पास पहुँचाना एवं बहुत दिन वहाँपर नहीं लगाना । जल्दी यहाँपर लौट आना, नहीं तो सासुबाईकी पुत्रीको यहाँपर कष्ट होगा ।
इस प्रकार महलके कार्यको करके भरतेश्वर पुनः दरबार में आये ।
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