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भरतेश वैभव
२९९ तांबुल आदि रसोईघरमें रखे हुए हैं। इस प्रकार सर्व सुख-सामनियोंसे भरे हुए उस महलको देखकर अपनी रानियोंसे कहने लगे कि मेरी बहिनकी भक्ति आप लोगोंने देखा? उसके मनमें कितना उत्साह है ? तब रानियोंने हँसकर उत्तर दिया कि इसमें आपकी बहिनने क्या किया? यह सब हमारे भाईके कार्य हैं। आप व्यर्थ ही अभिमान क्यों करते हैं ? भरतेश्वरने रानियोंकी बात सुनकर अपनी बहिनसे कहा कि देखा बहिन ! इन औरतोंकी बात कैसी है ? गंगादेवीने उत्तर दिया कि भाई ! औरतें हमेशा अपनी मायकेकी प्रशंसा करती रहती हैं । इनका स्वभाव ही यह है । इत्यादि विनोद वार्तालापके बाद स्नान भोजन व बिनागिरीमा निन महा । दूसरे दिन तीर्थवंदनाकी इच्छा हुई । तब गंगाकूटकी ओर सब लोग चले ।।
जिस प्रकार सिंधुनदी ऊपरसे नीचे जिन प्रतिमाके ऊपर पड़ रही थी उसी प्रकार गंगानदी भी अर्हतप्रतिमापर पड़ रही थी। उसे सम्राट्ने देखा । उस पुण्यगंगाको देखनेपर ऐसा मालम हो रहा था कि शायद अर्हत्की प्रतिमारूपी चन्द्रमाको देखकर हिमवान् पर्वतरूपी चन्द्रकांत शिला पिघलकर नीचे पष्ट रही हो। जो लोग इस तीर्थ में भगवतको अभिषेक कराते हुए आ रहे हैं एवं भक्तिसे स्नान करेंगे उनके पापको मैं दूर करूँगा, इस बातको वह घोषणापूर्वक कहता हुआ आ रहा हो मानो कि वह तीर्थ भोर्भोर, घमघम, झल्लझल्ल शब्दको करते हुए पड़ रहा था। मानसरोवरमें हंस जिस प्रकार स्नान करते हैं, उसी प्रकार बुद्धिसागर मंत्रीने अनेक द्विजोंके साथ उस तीर्थ में स्नान किया। तदनंतर अपनी रानियोंके साथ भरतेश्वरने उसमें प्रवेश किया। रानियोंको अर्हतप्रतिमाका दर्शन कराकर बहुत आनन्दसे उस तीर्थमें स्नान किया। बादमें भूसुरवर्गको दान देकर भोजनादिसे निवृत्त होनेके बाद सिंधुदेवीके समान गंगादेवीसे भी भरतेश्वरने आशीर्वाद प्राप्त किया ।
उस दिन भरतेश्वरने अपने लिए निर्मित महलमें सुखसे समय व्यतीत किया। श्री परमात्माकी सेवा करके विपुल कर्मोंकी निर्जरा की । दूसरे दिन जब उन्होंने आगे प्रस्थान करनेका विचार किया तब गंगादेवीको बुलाकर उसका यथोचित सत्कार किया। कहने लगे कि बहिन ! मेरी दो बहनें थीं। परन्तु उन्होंने दीक्षा ली। उससे मेरे हृदयमें जो दुःख हो रहा था उसे तुमने और सिंधुदेवीने दूर किया है। मेरी बहिन आहिलाके समान ही सिंधुदेवी है और सौंदरीके समान ही