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भरतेश वैभव ने सम्राट्के लिए यह सन्न व्यवस्था की है। अब गंगानदी एक कोस बाकी है। गंगादेव अपने परिवारके साथ वहाँपर सम्राट्को लेने के लिये आया है। चक्रवर्तीने गंगानदीके तटपर सेनाका मुक्काम करानेका आदेश दिया । उसदिन भरतेश्वरने मंगादेवके आतिथ्यको स्वीकार कर बहुत आनन्दसे समय व्यतीत किया। दूसरे दिन भरतेश्वरकी बहिन गंगादेव भाईके दर्शनके लिए अपने परिवारकी देवियों के साथ आईं।एक दम भाईसे आकर मिलने में उसके हृदय में संकोच हो रहा था। परन्तु भरतेश्वरने "बहिन ! आओ, संकोच क्यों ? इस प्रकार कहकर उसको दूर किया। गंगादेवीने पासमें आकर भाईसे निवेदन किया कि भाई ! तुम्हारा यहाँपर रहना ठीक नहीं है। मैंने तुम्हारे लिये ही खास महल. का निर्माण कराया है। तम्हारे लिये ना कुछ न के बराबर है। तथापि बहिनकी इच्छाकी पूर्ति करना तुम्हारा काम है । अतएव उस नवीन भवन में प्रवेश करना चाहिये। आजके दिन आपका मुक्काम रहकर कल आप तीर्थबन्दना करें, बादमें आप आगे जा सकते हैं। बहिनकी इतनी प्रार्थना अवश्य स्वीकृत होनी चाहिये । भाई ! हमलोग संपत्तिसे गरीब जरूर हैं, फिर भी भरतेश्वरकी बहिन कहलानेका गौरव मुझे प्राप्त हुआ है। अतएव मैं लोकमें सबसे श्रेष्ठ हूँ । इसलिए डरनेकी कोई जरूरत नहीं, इस प्रकार कहती हुई उसने भरतेश्वरके दुपट्ट को धरकर उठने के लिए कहा । भरतेश्वरने भी बहिनकी भक्तिको देखकर प्रसन्नताको व्यक्त किया और कहने लगे कि बहिन ! मैं अवश्य आऊँगा । तुम्हारी इच्छाके विरुद्ध में चल नहीं सकता ! तुम्हें अप्रसन्न करना मुझे पसंद नहीं है। तब उसने दुपट्ट को छोड़ा। साथमें भरतेश्वरकी रानियोंको भी उसने बहुत सन्मानके साथ बुलाकर कहा कि आप लोग भी मेरे भाईके साथ नवीन महलमें चलें। सभी प्रसन्नचित्तसे वहाँ जानेके लिए उठे। भरतेश्वर प्रसन्नताके साथ अपनी बहिनके यहाँ जा रहे हैं । उसे देखकर गंगादेवने अपने मन में विचार किया कि देखो ! मैं सम्राट्के पास जाने के लिए संकोच कर रहा था, परन्तु सम्राट अपनी बाहिनके साथ किस प्रकार निस्संकोच जा रहे हैं।
गंगादेवीने भरतेश्वरको उस नवीन महलके परकोटा, गोपुर आदिको दिखाकर अंदर प्रवेश कराया। वहाँपर भोजनशाला, चंद्रशाला आदि भिन्न-भिन्न स्थानोंके निर्माणको देखकर भरतेश्वर बहुत ही प्रसन्न हुए । कई शय्यागृह सुन्दर रत्ननिर्मित पलंगोंसे सुशोभित हैं। दिव्य अन्नके लिए योग्य अनेक पदार्थ और सोनेके बरतन और कर्पर