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भरतेश वैभव दव व सिंधुदेवीसे प्राप्त सन्मानको पाठक भूले नहीं होंगे। यह उनके सातिशय पुष्पका फल है।
भरतेश रात्रिदिन इस प्रकारकी भावना करते हैं :
हे परमात्मन् ! तुम स्वपरहितार्थ हो ! तुम तीर्थक रूप हो । संपूर्ण शास्त्रोंके सारार्थस्वरूप हो ! मुक्ति के लिए मूलभूत हो ! अतएव मेरे हृदयमें सदा बने रहो। हे सिद्धात्मन् ! थके हुए इन्द्रियोंको शांत कर आगे तपश्चर्याके लिए समर्थ बनानेकी शक्ति आपमें मौजूद है । अतएव आप विशिष्ट बलवान हैं । जगमें अति बलशाली हैं । मेरे हृदय में भी सन्मति प्रदान करें। ___ इसी भावनाका फल है कि भरतेश्वरका समय सदा सुखमय ही बना रहता है। अत्युत्कट संकट भी टलकर भरतेश्वर सिंधुके तीर्थमें स्नानकर श्रीजिनेन्द्र के दर्शनको भी कर सके।
इति सिधुविधाबांध सावं
अंकमाला संधि सिंधुदेवसे आदरके साथ विदाई पाकर तथैव गुणसिंधु भगवतको स्मरण करते हुए भरतेश्वरने आगे प्रस्थान किया। एक दो मुक्कामको तय करते हुए सिंधुके तटमें ही फिरसे मुक्काम किया। वहाँपर हिमवंतदेव अपने परिवारके साथ आया। विजयार्धदेव उसे ले आनेके लिए गया था, पाठकोंको स्मरण होगा। विजयादेव उसे लेकर आया है। भरतेश्वरसे "स्वामिन् ! यह हिमवान् पर्वतके अग्रभागपर रहता है। सज्जन है, आपके दर्शनके लिए आया है।" इस प्रकार विजयार्धदेवने उसका परिचय कराया। हिमवंतदेबने आकर अनेक उत्तमोत्तम बस्त्राभरणोंको चक्रवर्तीके सामने भेंटमें रखकर साष्टांग नमस्कार किया। साथही चंदन, गन्ध, गोशीर्ष, महौषध आदि अनेक उत्तम पदार्थोंको समर्पण किया। भरतेश्वरने भी उसे उपचार सत्कारसे आदरके साथ योग्य आसन पर बैठा दिया। विजयार्धदेव भी बैठ गया।
भरतेश्वर अब पश्चिम दिशासे गंगाफूटकी ओर प्रयाण कर रहे हैं। उस समय उनको दाहिने भागमें सुन्दर हिमवान् पर्वत दिख रहा था। उसके सौंदर्यको देखकर मागधामरसे सम्राट् कहने लगे कि मागध !