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भरतेश वैभव
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भरतेश्वर बड़े भाग्यशाली हैं । उनको इच्छित पदार्थोंकी प्राप्ति में देरी नहीं लगती है, संसार में इष्टपदार्थो का संयोग सबको नहीं हुआ करता है । जो महान पुण्यशाली हैं उन्होंको उनकी मनोकामनाकी पूर्ति होती है । भरतेश्वर भी उन महापुरुषोंमेंसे हैं। वे परमात्माकी भावना करते हैं ।
हे परमात्मन ! तुम्हारा जो स्मरण करते हैं उनको उनके इच्छित सुखको भुम प्राप्त की हो। क्योंकि परमानन्द स्वरूप हो । इसलिये हे अमृतवर्धन ! तुम मेरे हृदय में सदा बने रहो ।
हे सिद्धात्मन् ! आपका मुक्तिश्री के साथ जिस समय विवाह होता है उस समय लोकके समस्त जन आनन्दसे नर्तन करते हैं परन्तु आपकी उस बातका विचार बिलकुल नहीं रहता है। आप उस नववधू मुक्तिकांता के साथ बिलकुल सुख भोगने में मग्न हो जाते हैं । इसलिये आप निरंजनसिद्ध कहलाते हैं । स्वामिन्! मुझे सुबुद्धि प्रदान कीजिये ।
इसी पुनीत भावनाका फल है कि सम्राट्को इस संसारसे उस प्रकारके सुख मिलते हैं ।
इति स्त्रीरत्नसंभोग सन्धि.
अथ पुत्रवाह संधि
विवाहादि कार्यके दूसरे दिन विप्रोंने आकर भरतेश्वरको आशीर्वाद दिया | कवियोंने अनेक साहित्यिक रचनाओंसे उनको सन्तुष्ट किया । राजाओंने भेंट आदि समर्पण कर अपना आदर व्यक्त किया। सम्राद् ने भी सबको यथायोग्य वस्त्राभरणादिसे सन्मान किया । दोनों तरफके बन्धुओंमें कई दिन तक आनन्द ही आनन्द रहा । भरतेश्वरकी पुत्रियाँ और नमिराजकी देवियोंमें इस बीचमें कई बार आना जाना हुआ । परस्पर भोजनके लिये एकमेकके घर जाती रहीं । आपसमें विशेष प्रेम बढ़ने लगा ।
एक दिनकी बात है सम्राट् व उनके चारों साले व अपनी रानियों के बीच बैठकर विनोद वार्तालाप कर रहे थे। उस विनोदमें उनको चक्रवर्ती चिढ़ानेके लिये प्रयत्न कर रहे थे । नमिराजसे बोलते समय पहिले बीती बातोंको याद दिलाकर विनोद करने लगे । मधुवाणी बोलने लगी कि रहने दो सम्राट् ! हमारे राजाको आप क्या समझते
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