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भरदेश वैभव कहा कि बेटा ! आप लोग जरा अपने शास्त्रानुभवको बतलायें तो सही ! तब उन कुशल पूत्रोंने शास्त्र-कौशल्यको बतलाया। कभी व्याकरणसे शब्दसिद्धि कर रहे हैं तो फिर तर्कशास्त्रमें तत्त्वसिद्धि कर रहे हैं, सार संस्कृत गोठते हा भागाके उन्मोंको प्रतिपादन कर रहे हैं। भरतशास्त्र, नाटक, कविता, हस्तिपरीक्षा, अश्वपरीक्षा, रत्नपरीक्षा आदि अनेक शास्त्रोंमें उन पुत्रोंने अपने नैपुण्यको वताया। वे भरतेश्वरके ही तो पुत्र थे। तब भरतेश्वरको बड़ी प्रसन्नता हुई। प्रश्न किया कि बेटा ! लोकरंजनकी आवश्यकता नहीं। मोक्षसिद्धि के लिये क्या साधन है । उसे कहो। भरतेश्वर उनके बोलनेके चातुर्यको देख. कर खूब प्रसन्न हुए थे । परन्तु उसे छिपाकर कहने लगे कि गड़बड़ी में हम लोगोंको तुम फंसाने जा रहे हो । परन्तु हमें बतलाओ कि कर्मोका नाश किस प्रकार किया जाता है ? उसके बिना यह सब व्यर्थ है ! तब उन पुत्रोंने कहा कि पिताजी ! पहिले भेद रलायको धारण करना चाहिये। बादमें अभेदरत्नत्रयको धारण कर उसके बलसे कर्मोका नाश करना चाहिये । यही कर्मोको नाश करनेका उपाय है। जब कर्मनाश होता है तब मोक्षकी सिद्धि अपने आप होती है।
फिर पिताने पूछा कि उस भेदरत्नत्रयका स्वरूप क्या है ? उसे बोलो तो सही ! तब पुनः पुत्रोंने कहा कि देव, गुरुभक्ति व अनेक आगमोंका चिन्तापूर्वक अध्ययन करना यह व्यवहार रत्नत्रय है और यही भेदरत्नत्रय है। केवल आत्मा, आत्मामें लगे रहना यह निश्चय या अभेद रलय है । तब नमिराजने भी कहा कि बिलकुल ठीक है। तब चक्रवर्तीने नमिराजसे प्रश्न किया कि क्या यह ठीक है ? बोलो तो सही ! नमिराजने उत्तर दिया कि पहिले भेदरलत्रयमें प्रवीण होकर मादमें अपने आत्मामें लीन होना यही श्रेष्ठ मार्ग है। तब भरतेशने प्रश्न किया कि क्या व्यवहार ही पर्याप्त नहीं है ? निश्चयकी क्या जरूरत है। तब नमिराजने कहा कि व्यवहारसे स्वर्गकी प्राप्ति हो सकती है। मोक्षसिद्धिके लिये निश्चयकी आवश्यकता है। नमिराजके वचनको सुनकर चक्रवर्ती प्रसन्न तो हुए, परन्तु उसे छिपाकर कहने लगे कि तुम्हारी बात मुझे पसन्द नहीं आई। तुम ठीक नहीं बोल रहे हो। तब भरतपुत्रोंने कहा कि पिताजी ! मामाजी ठीक तो कह रहे हैं। इस सीधी बातको आप क्यों नहीं मान रहे हैं ? तब सम्राट्ने कहा कि शायद आप लोग अपने मामाकी बातको पुष्टि दे रहे हैं। जाने दो। यह जो और मेरे पुत्र