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भरतेश वैभव
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तीन बार साष्टांग नमस्कार कर भरतेश्वर बहुत भक्तिसे भगवान् की खुति करने। तत हो रहे थे. आनंदाधुधारा बह रही थी । मन्दस्मित होकर बहुत सुस्वरके साथ वे स्तुति कर रहे थे । वह निम्नलिखित स्तोत्र पाठ था
कांचनभूभुदुदंचित गौरवाकुचित भावस्वरूप !
पंचबाणानेकजित ! पुरुषाकार ! प्रांचित ! जय जय ! सुत्रामशत मुकुटान रत्नांशुचित्रितखरणाजयुगल ! छत्रा सुक्तांशगंगावृतबहुजटासूत्रित जय जय ! संग निरांग सुरंग चिदंग मतंगजरिपुविष्ट राठध ! सांगिकसुर कुसुमासारधूलिभस्मांगित जय जय ! पिंजरितोग्रकर्मारण्यदावधनंजय सुज्ञानभानु भंजितजातिज रामयवुः खमृत्युजय जय जय ! कंजल्कभुंजित मंजु लालिस्वरजितमंजुघोषाढ्य ! रंजितगीतपुष्पांजलि पूज्य परंज्योति जय जय ! श्राव्यविव्यालापकाव्यसंसेव्य सव्य निष्यंक्तचिद्रव्य ! अव्ययसिद्धी सुसंष्य कहितकाव्याढ्य जय जय ! सुज्ञानवर्शनसुखशकांतिमनोज्ञ श्रीअमलाविवस्तु ! प्राज्ञजनाचित! जय जय स्वामी ! सर्बज्ञ सदाशिवो देव ! भरतनप्पाजि शक्रन स्वामी कलिकालपरिचित रत्नाकरना ! परिचय जय जय यंवेरगिव नर सुररेल्ल जय जय येनल !
इस प्रकार बहुत भक्ति से सम्राट्ने भगवंतकी स्तुति की। रत्नाकरने अपने पिता स्थानमें श्रीमंदर स्वामीको व बड़े बापके स्थानपर श्री आदिप्रभुका उल्लेख किया है। इस प्रकारका भाग्य हर एकको कहाँ मिल सकता है ? इसके बाद भरतेश्वरने सुरकृत जलसे स्नान किया। अपने शरीरका शृंगार किया। अनेक उत्तमोत्तम द्रव्योंसे जिनेंद्रकी पूजा की। भरतेश्वरको किस बातकी कमी है ? चिंतामणि रत्नने चितित पदार्थो को लाकर दिया । तीर्थजल, मलयजचंदन, अक्षत, पुष्प, दीप, धूप, फल, अर्घ्य इस प्रकार अष्टद्रव्योंके साथ तीर्थेश्वरकी पूजा की। उस समय भरतकी भक्तिको देखकर भगवान्के समवसरण - स्थित समस्त भव्य जय-जयकार कर रहे थे । पूजासे निवृत्त होकर भगवान् की तीन प्रदक्षिणा भरतेश्वरने दी । तदनंतर बहुत भक्तिसे साष्टांग नमस्कार किया । बादमें मुनियोंकी वंदना की । देवेन्द्रादियोंके साथ बातचीत की। गणधरको आशा पाकर ग्यारहवें कोष्ठ में वे