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भरतेश वैभव
नमिराजविनय संधि
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भरतेश्वरको बुद्धिसागर मंत्री रोज वहाँस मंगल समाचारको भेज रहा है, उसे जानकर भरतेश्वर प्रसन्न होते हैं ।
एक दिनकी बात है कि भरतेश्वर अपनी महलसे सुखसे बैठे हैं, प्रातःकालका समय है । आकाशप्रदेशमें अनेक वाद्यविशेषोंके शब्द सुनने में आये । भरतेश्वरने जान लिया कि यह गंगादेव व सिंधुदेव आ रहे है. जयां उन्होंने स्वागत के लिए भेजा। सब लोगोंने बहुत वैभव के साथ पुरप्रवेश किया। गंगादेवी व सिंधुदेवीने आकर अपने भाईको नमस्कार किया व उचित आसनपर बैठ गई ।
भरतेश्वरने हर्ष के साथ पंडितासे कहा कि हमारी बहिनें मंगल समय में उपस्थित हुई, देखा ! पंडिताने उत्तर दिया कि क्या बड़े भाईके कार्य में से उपस्थित न हों तो फिर कब उपस्थित हों ? स्वामिन् ! स्त्रियोंका स्वभाव ही यह होता है कि वे मायके में कुछ विवाहादि मंगलकार्य हो तो उसमें उपस्थित होनेके लिए उत्कंठित रहती हैं। उसमें भी जब आपकाही गौरवपूर्ण मंगलकार्य है, उसे सुनकर वे कैसे रह सकती हैं ? जिस विवाहमें सहोदरियां नहीं हैं वह विवाह ही नहीं है । भरतेश्वरने हँसकर पंडिताको कुछ इनाम दिये व बहिनों की ओर देख कर कहने लगे कि आप लोग थक गई होंगी । गंगादेवी व सिंधुदेवीने कहा कि भाई ! हमें कोई थकावट नहीं है, तुम्हारे महलकी ओर जाते समय अनुकूलपवन था । कोई आंधी वगैरह नहीं थी । जिस समय हम आ रही थीं उस समय बहुतसी व्यंतरदेवियां हमें हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी थीं कि आप लोग बड़ी भाग्यशालिनी हैं। भरतराजकी भगिनियाँ हैं, आप लोग हमपर कृपा रखें। इसी प्रकार आगे जिस समय हम बढ़ीं तो कुछ देवियाँ दूरसे ही नमस्कार कर चली गईं। ये इस प्रकार चुपचापके क्यों जा रही हैं ? ऐसा हमें संदेह हुआ। तलाश करनेपर मालूम हुआ कि आपके सेवकोंने अंकमालाको लिखते समय उद्दण्डता करनेसे उनके पतियोंके दाँतोंको तोड़ डाले थे । अतएव वे चुपचापके जा रही थीं। हमें अपने भाईकी वीरतापर हर्ष हुआ, उनकी मूर्खतापर दया आई। इधर चक्रवर्तीकी रानियोंने उन दोनों देवियोंका स्वागत किया व उन दोनोंको अंदर लिवा ले गईं। इधर जयंतांकते गंगादेव व सिंधुदेवका स्वागत किया । गंगादेव व सिंधुदेवने भी सेना