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भरतेश वैभव यशोभद्राने कहा कि बेटा ! तुमने भरतेशकी ओरसे प्रमुख राजाओंका जो सन्मान किया वह श्लाघनीय है। मेरी इच्छा तृप्त हुई। ___ "माताजी इस प्रकार में प्रतिष्ठाके साथ उन सबको ग्रहाँ न बुलाकर एकांतमें लेजाकर सबके समान कन्याको दे देता तो बहिन भी उसके अंतःपुरमें हजारों रानियोंके समान सामान्य रूपसे रहती। उसे हमेशा सवतमत्सरसे होनेवाले दुःखको अनुभव करना पड़ता 1 परंतु आज जिस ढंगसे मैंने कार्य किया उससे वह पट्टरानी हो गयी। इन सब बातोंको न सोचकर आप तो कहती थीं कि कन्याको लेजाकर भरतेशको दो, नहीं तो मैं घर छोड़कर जाऊँगी। कहिये अब कैसा हुआ ?" नमिराजने कहा ।
यशोभद्रा देवी नमिराजके वचनको सुनकर हँस गई। कहने लगी कि बेटा! लोकमें कहावत है कि औरतोंको बुद्धि राख में मिलती है, क्या यह झूठ है ? तुमने मेरे अविवेकको सम्हालकर सचमुच में हमारे वंशका उद्धार किया है । बहिनके लिए परमसुख हुआ पट्टरानी बन गई । मुझे परम संतोष हुआ। राज्यांग गौरव हुआ इन सबके लिये तुम ही कारण हो, अतएव बेटा ! सुखसे जीते रहो।
नमिराजने मातुश्रीके चरणोंमें नमस्कार कर अपनी महलकी ओर प्रस्थान किया। मातुश्री आनंदसे नहींपर बैठी रहीं, बुद्धिसागर अपने कार्यको करके भरतेश्वरकी ओर चला गया।
भरतेश्वरकी इच्छायें निर्विघ्नरूपसे एवं निमिषमात्रसे पूर्ण होती हैं । इसके लिए पूर्वजन्ममें जो उन्होंने तपस्या की है और वर्तमानमें पुण्यमय भावना कर रहे हैं, वही कारण है। उनकी सतत भावना रहती है कि .
हे परमात्मन् ! तुम निमिषमात्र भी दुःखका अनुभव नहीं करते हुए सुखसागरमें मग्न हो, अतएव महादेव कहलाते हो । हे सुखोत्तम ! उस अमृतको सिंचन करते हुए मेरे हृदय में सदा बने रहो। हे सिद्धास्मन् ! तुम उत्साहवर्धक हो, उन्मार्गमर्दक हो, चित्सुखी हो, चित्रार्थचरित्र हो, सन्मुनिहृदयश्रीवत्स हो इसलिये स्वामिन् ! मुझे सन्मति प्रदान कीजिये।
इसी भावनाका फल है कि उनको किसी भी कार्य में दुःखांत फल नहीं मिलता है।
इति मुद्रिकोपहार संषिः