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भरतेश वैभव
३३१ मेरी पुत्री धन्य है। इस प्रकार प्रातःकाल में बड़े आनन्दके साथ भोजनादि कार्य हुये | बादमें दोपहरको चक्रवर्तीने सबको आनन्दसे बसंतोत्सव व कुंकुमोत्सव मनानेके लिये आदेश दिया।
तदन्तर गंगादेव ब सिंधुदेव दोनों नमिराजकी महलपर गये व महोदवीको सिनेवित दिध, सणको कार चले गये । इसे देखकर गंगादेवी व सिंधुदेवीकी भी बड़ी इच्छा हुई कि हम भी भाभीको कुछ भेंट दें। उन्होंने अपने पतिराजसे पूछा । उत्तरमें गंगादेव सिंधुदेवने कहा कि यदि तुम्हारे भाईने आज्ञा दी तो तुम लोग जा सकती हो । उसी समय गंगादेवी व सिसुदेवो दोनों मिलकर भाईके पास आई और कहने लगी कि भाई ! विवाहके लिये श्रृंगारकी हुई कन्याको हम देखना चाहती हैं । परवानगी मिलनी चाहिये । तब भरतेश्वरने कहा कि आप लोगोंको इतनी गड़बड़ क्या है ? राधिमें विवाह मंडपमें आप लोग देख सकती हैं। दूसरोंके धरमें बिना बुलाये जाना क्या उचित है ? भाई ! परगृह कौनसा है ? यह गगनवल्लभपुर तो नहीं है। अपने नगरमें आकर उन्होंने अपनी महलमें मुक्काम किया है। फिर वह परगह किस प्रकार हो सकता है ? ऐसा नहीं बहिन ! दूसरे जब अपनको बुलाते नहीं, अपन ही स्वतः वहाँ पहुँचते हैं तो उसमें आदर नहीं रहता है। वे कह सकते हैं कि हमने क्या बुलाया था? वे क्यों आ गई ? इससे अपनी प्रतिष्ठा कम हो सकती है। भाई ! तुमने हमें आदरकी दृष्टिसे देखा तो हमें दुनियाका सन्मान मिल गया । यदि तुमने आदर नहीं किया तो हमारी कीमत अपने आप कम हो जाती है । इसलिये वे क्या कर सकते हैं ? हमें उनके सन्मानसे क्या? प्रयोजनविशेष क्या ? षट्खंडाधिपति हमारे भाई की भाग्यशालिनी भावी पट्टरानी, उस हमारी भाभीको देखनेकी भव्यभावना हमारे मनमें हो गई है । इसलिये हमें अनुमति मिलनी चाहिये।
भरतेश्वरने बहिनोंकी बड़ी आतुरता देखी। उन्होंने कहा कि अच्छा ! यदि आप लोगोंकी बहुत इच्छा हो तो एक दफे जाकर आवें। तब उनको बड़ा आनंद हुआ। वे दोनों बहिने उसी समय नमिराजके महलमें गईं। यशोभद्रादेवीको मालूम हुआ कि भरतेश्वरकी बहिनें मिलनेके लिये आ रही है। तब देवीने सेवकियोंसे उन दोनों बहिनोंका पर धुलवाया और योग्य आसन देकर बैठने के लिये कहा। परन्तु उन बहिनोंने कहा कि हम लोग यहाँ नहीं बैठेंगी । हमारी भाभी कहाँ हैं ? उसके पास जाकर बैठेंगी। तब यशोभद्रादेवी उनको ऊपरकी महल में