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भरतेश वैभव बहिनकी इतनी प्रार्थनाको अवश्य स्वीकार करें । भरतेश्वरने संतोषसे उसे स्वीकार कर लिया । सिंधुदेवी कहने लगी कि भाई हम अतधारी नहीं हैं। अतएव हमारे हाथ से आप आहार ग्रहण नहीं कर मकते हैं। इसलिए मैं सब भोजनके सामानको तैयार कर देती हैं। आप अपने परिचारकोंसे भोजन तैयार करावं । उसी प्रकार हआ । दोनों समय भरतेश्वरने अपनी रानियोंके माथ आनंदसे भोजन किया। दूसरे दिन सिंधुदेवीको बुलाकर उसका सन्मान किया।
सिन्धुदेवी ! बहिन ! आवो, पहिले मरी एक बहिन थी। उसका नाम ब्राह्मिलादेवी था। उसका शरीर और तुम्हारा शरीर मिलताजुलता है। वह कैलासमें दीक्षा लेकर तपश्चर्या कर रही है । तुझे प्राप्तकर उसके वियोगके दुःखको मैं भूल गया हूँ। अब मेरे लिए तुम ही ब्राह्मिलादेवी हो।
इस प्रकार स्नेहभरे वचनोंको सुनकर सिंधुदेवी कहने लगी कि भाई ! मैं आज कृतकृत्य हो गई हूँ। देवाधिदेव आदिप्रभुकी पुत्री, षट्खण्डाधिपतिकी बहिन कहलानेका भाग्य मैंने पाया है, इससे बढ़कर और क्या चाहिये। इसके बाद सम्राट्ने नवनिधियोंकी ओर इशारा कर बहिनको नवरत्न-वस्त्र-आभरणादिसे यथेष्ट सत्कार किया। इसी प्रकार परिवार देवियोंको. सिंधुदेव आदिको कल्पवृक्षके समान ही विपुल उपहारोंसे सन्मान किया । तदनंतर भरतेश्वरकी रानियोंने मोतीका हार, मुद्रिका आदिसे सिंधुदेवीका सत्कार किया । सिंधुदेवीने यह कहते हुए कि मैंने जब दिया था आप लोगोंने लेनेसे इन्कार किया था। अब मुझे क्यों दे रही हैं, लेनेके लिए संकोच किया। तब रानियोंने क्या हमने नहीं लिया था? यह कहकर जबर्दस्तीसे दिया । अन्योन्य विनयसे सदाकाल रहना अपना धर्म है, इसी प्रकार प्रेमसे सदा रहें । इस प्रकार कहते हुए सब लोगोंने विदाई ली। __ भरतेश्वर जहाँ जाते हैं, उनको आनंद ही आनंद रहता है । मनुष्य, देव, व्यंतर आदि सभी उनके बंधु हो जाते हैं। मनुष्योंमें देखें तो भी उनके गुणोंपर मुग्ध हैं। देवगण जरासी देर में उनके किंकर होते हैं। उन्होंने अपनी दिग्विजय यात्रामें कहीं भी असफलताका अनुभव नहीं किया। किसीने अदूरदर्शितासे उनके साथ प्रतिवन्दिता करनेके लिए प्रयत्न किया तो वे बादमें पछताये। दिनपर दिन उन्हें अपूर्व उत्सवोंका अनुभव होता है। सिंधुनदीमें तीर्थस्नान करनेका भाग्य एवं सिंधु