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भरतेश वैभव प्रतिष्ठित देव हैं, एक गंगादेव हैं और दूसरा सिंधुदेव हैं। उन दोनोंके आनेपर पं दुष्ट पिशाच एकदम भाग गये। दोनों देव कल या परसों तक आकर सम्राट्के चरणोंका दर्शन करेंगे । चक्रवर्तीको यह समाचार सुनकर हर्ष हुआ एवं दोनों देवोंके प्रति हृदयमें प्रेम उत्पन्न हुआ। उस समय युद्धमें गये हुए सर्व वीरोंका अनेक वस्त्राभरण वगैरह प्रदान कर सन्मान किया एवं कुरुवंश के तिलक सोमप्रभ राजाके पुत्र जयकुमार को उसकी बीरतासे प्रसन्न होकर अलौकिक उपहारोंको प्रदान किया एवं उससे कहा कि जयकुमार ! आज तुमने मेघमुख देवताको परास्त किया है। इसलिए आजसे तुम्हें मेघेश्वरके नामसे उल्लेख किया जायगा । विशेष क्या? तुम्हारे लिए मैं वीराग्रणी यह उपाधि प्रदान करता हूँ। तुम्हारी वीरतासे मैं प्रसन्न हुआ हूँ। उस समय सभी विद्वानोंने इसकी अनुमोदना की। सम्राट्ने अपने कोमल हस्तसे जयकुमारकी पीठको ठोकते हुए प्रेमसे कहा कि जयकुमार ! तुम मेरे लिए अर्ककीतिके समान हो। तुम्हारी वीरकृतिपर मुझे अभिमान है। जयकुमार भी प्रसन्न हुआ। हर्षसे चरणोंमें पड़कर कहने लगा कि स्वामिन् ! मैं आज धन्य हुआ। स्वामिन् ! आवर्तकके भाई माधव व चिलात राजा चरणोंके दर्शन करनेकी इच्छासे बाहर आकर खड़े हैं। परन्तु पहिले द्रोह करनेके कारणसे डर रहे हैं। इसलिए आज्ञा होनी चाहिए।
सम्राट्ने कहा कि वे दोनों द्रोही तो हैं। उन दोनोंको देखने की आवश्यकता नहीं है तथापि तुम्हारे वचनकी उपेक्षा करना भी ठीक नहीं है। इसलिए उनको मेरे सामने बुलाओ। इस प्रकार उदार हुदयी व मन्दकषायी भरतेश्वरने कहा । जयकुमारने दोनोंको लाकर सामने हाजिर किया। दोनों देवोंने हाथ जोड़कर भरतेश्वरके चरणोंको भक्ति से नमस्कार किया व प्रार्थना करने लगे कि स्वामिन् ! आप शरणागतोंके लिए बज्रपंजर हैं । अतएव हमारी भी रक्षा करें। भरतेशने उनको पूर्ण अभयदान दिया। उन दोनोंने उठकर अनेक वस्त्राभूषणोंको भरतेश्वरकी सेवामें समर्पण किये। साथमें जयकुमारने सम्राट्के कानमें सूचित किया कि ये स्वामीकी सेवामें कुछ कन्याओंको भी समर्पण करना चाहते हैं । सम्राट्ने धीरेसे उत्तर दिया कि यह समय नहीं है, तब जयकुमारने उनको इशारा किया।
सम्राट्ने माधय व चिलातको बुलाकर उनको अनेक उत्तमोत्तम