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भरतेश वैभव हाथोंको बांधकर उसे राजाकी ओर ले गया। उस समय सूर्य उदय हो गया था। भरतेश्वर दरबार लगाकर विराजमान हर है। जयकूमारने कैदीको लाकर सम्राटके सामने खड़ा कर कहा कि स्वामिन् ! यही स्वामिद्रोही है। इसीने देवोंकी सहायतासे हमको कष्ट पहुँचाया है।
भरतेश्वर -सीधेसाने मेरे पासमें न आकर उद्दण्डतासे युद्ध करनेकी भावना क्या इस दुष्टने की थी? इस पापीके मुकुटपर लात मारो, क्यों खड़े-खड़े देखते हो? इस प्रकार भरतेश्वरने क्रोधसे कहा ! सेनानायक उसे लात मारनेके लिये आगे बढ़ा तो सम्राटने उसे रोका व एक चपरासीको आज्ञा दी की तुम लात दो ! सम्राट् की आज्ञा पाकर चक्रवर्तीके पादत्राणको सम्हालनेवाले चपरासीने उसे अपने बांय पैरसे लात दिया । आवर्तकराजाका मुकुट ढंढण शब्द करते हुए जमीनपर पड़ गया, मानो वह शब्द शायद घोषित कर रहा था कि भरतेश्वरके साथ उद्दण्डता करनेवालों की यह हालत होती है। भरतेश्वरने सेनापतिको आज्ञा दी कि इस दुष्टको हमारे सामनेसे ले जाओ और नजर कंदमें रखो। आज्ञा पाते ही जयकुमारने उसके बँधे हुए हाथोंको खुलवाये व एक मकानमें ले जाकर कंद रखने की व्यवस्था की। भरतश्वरने जयकुमार और मागधामरसे कहा कि आप लोगोंने बहुत अच्छा काम किया है। आज आप लोग जाएँ। कल मैं आप लोगोंका सत्कार करूँगा, सेनाको भी आज विश्रांति मिलने दो। इस प्रकार कहते हुए वे मलमें चले गये । इस प्रकार भरतेश्वरने दुष्टोंका निग्रह किया और शिष्टोंका संरक्षण भी करेंगे। यही उनका क्षात्रधर्म है। __भरतेश्वरका पुण्य जबर्दस्त है। विजया पर्वतके तमिस्र गुफा, सिन्धु आदि नदियोंको पारकर आगे बढ़ना कोई सामान्य कार्य नहीं है। वहाँ पर उन्मग्न, निमग्न नामक दो भयंकर भोवरे हैं । वनमय कपाटोंको तुड़वाकर उन भयंकर नदियोंपर पुल बैंधबाकर उत्तर खण्डम आप पहुंचे हैं। यहाँ पर आते ही यह आपत्ति खड़ी हो गई। उसे भी निरायास ही उन्होंने दूर किया तो यह सब उनके पूर्वसंचित पुण्यका ही फल है । भरतेश्वर सदा इस प्रकारकी भावना करते हैं कि --
हे परमात्मन् ! शरीररूपी तमिस्र गुफामें रागद्वेषरूपी नदी मौजूद है। उसे पार करनेके लिए आप चिद्धन ( ज्ञानधन ) रूपी पुलको बाँधते हैं । उससे उस नदीको उल्लंघन करते हैं। इसलिए