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भरतेश वैभव
में पानी आने लगा । सब लोग घबराने लगे । चक्रवर्तीने छत्ररत्न व चर्मरत्नको उपयोग करनेके लिये आज्ञा दी। छबरत्नको ऊपरसे लगाकर ऊपर के पानीको रोवर बीजेकी ओरसे आनेवाली पानीको बन्द कर दिया । चक्रवर्तीकी सेना ४८ योजन लंबे और ३६ कोश चौड़े स्थानमें व्याप्त हैं । उतन प्रदेशों में छत्र व चर्मरल भी व्याप्त है । चर्मरत्नको शायद लोग चमड़ा समझेंगे। परन्तु वह् चमड़ा नहीं है, अत्यन्त पवित्र है, बज्ज्रमय है। उसे वज्रमय होनेसे रत्न - के नामसे कहते हैं । छत्ररत्नको सूर्यप्रभुके नामसे कहते हैं। ये दोनों रत्न पुण्यनिर्मित हैं, असाधारण हैं ।
ऊपरके उपसर्गको छत्ररत्न रोककर दूर कर रहा है, नीचेके उपसर्गको चर्मरत्न निवारण कर रहा है। चक्रवर्तीका 'पुण्य जबर्दस्त रहता है। उस मूसलाधार वृष्टिसे सेनाकी रक्षा दोनों रत्नोंसे हो तो गई परंतु 'सेनामें अंधकार छाया हुआ है। उसे काकिणीरत्नसे दूर किया। लोगों में उस समय अन्धकारसे जो चिन्ता छाई हुई थी उसे उस काकिणीरत्नने दूर किया, अतएव उसे उस समय चिताहतिके नामसे लोग कहने लगे । सबके रूपको दिखानेके कारण से चक्ररत्नको सुदर्शन नाम पड़ गया । पानी मूसलाधार होकर बराबर पड़ रहा है। सम्राट्ने सोचा कि शायद इस प्रदेशमें पानी अधिक पड़ता होगा । इसी विचारसे पानी की शोभाको देख रहे हैं, जैसे कि एक व्यापारी जहाजमें बैठकर समुद्रकी शोभा देख रहा हो । देश व कालके गुणसे यह पानी बरस रहा है, कल या परसोंतक बंद हो जायगा, इस प्रकार भरतेश्वर प्रतीक्षा कर रहे थे । परन्तु पानी सात दिनतक बराबर बरसता रहा भरतेश्वर विचार करने लगे कि रात्रि दिन निरवकाश होकर बह रहा है । सात दिनोंसे बरसनेपर भी उल्टा बढ़ता ही जा रहा है, कम नहीं होता है। इससे सेनाके भयभीत होने की संभावना है। आकाश और भूमि पानीसे एकस्वरूप हो रहे हैं। जमीनको देखते हुए समुद्रके समान हो गया है । ताड़वृक्षसे भी अधिक प्रमाण में स्थूल धारसे यह पानी पड़ रहा है। यह मनुष्योंका कार्य नहीं है । यह अवश्य दैवीय करतूत है । नहीं तो सात दिन तक बराबर नहीं वरसता । मागधामर व जयकुमार को बुलाकर कहा गया कि आप लोग जरा बाहर जाकर देखें कि क्या यह देवकृत चेष्टा तो नहीं है ? जयकुमार और मागधामरने देखा कि ऊपर आकाश में देवगण खड़े होकर यह सब कर रहे हैं। तब सम्राट्को नमस्कार कर दोनों आकाशमें चले गये, उनके पीछे अनेक व्यंतर भी
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