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भरतेश वैभव
विशिष्ट है । इत्यादि प्रकारसे प्रशंसा की । भरतेश्वरने भी ममयोचित सन्मान कर बुद्धिसागरको अपने स्थानमें भेजा व स्वतः महलकी ओर चले गये। आज अनेक रानियों उनकी दासियों से वियुक्त हैं । इसलिए वे शायद कुछ चिंतातुर होंगी। इसलिए उन सबको संतुष्ट करनेके लिए भरतेश्वर उधर चले गये ।
भरतेश्वरके व्यवहारको देखनेपर उनके चातुर्यका पता लगता है । frathi भी वे अप्रसन्न नहीं करते । अप्रसन्नता उपस्थित होने के समय में भी सरस विनोदसंकथालाप कर सामने के व्यक्तिको प्रसन्न कर देते हैं । निमिराज के वार्तालापसे पाठक इस बातका अनुभव करते होंगे । यह उनका सातिशय पुण्यका फल है। इसके लिये उन्होंने क्या किया है ? वे रात्रिदिन परमात्माकी भावना करते हैं कि
हे परमात्मन् ! सरस, सुमधुर बातोंसे ही दुष्ट कर्मोकी निर्जरा करनेका सामर्थ्य तुममें है। क्योंकि तुम सुखाकर हो, इसलिये मेरे हृदयमें तुम सदाकाल बने रहो । हे सिद्धात्मन् ! आप गुणवानोंके स्वामी हैं, सुशानियोंके राजा हैं। मुमुक्षुओंके लिये आदर्शरूप हैं । इसलिये प्रार्थना है, मुझे द्विगुण चतुर्गुण रूपसे सुबुद्धि दीजियेगा । इसी भावना का फल है कि सम्राट्को सर्व कार्यों में अनायास जयलाभ होता है ।
इति विनमिवार्तालाप संधि
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वृष्टिनिवारण संधि
एक महीने के बाद जयकुमारने आकर चक्रवतसे कहा कि स्वामिन्! आपकी आज्ञानुसार . सर्व व्यवस्था की गई है। लोगोंको उत्तरखंडमें जानेके लिये योग्य मार्ग तैयार किया गया । निमग्न और उन्मग्ननदीके ऊपर पुल भी बाँध लिया है। भूतारण्य देवारण्य नामक बड़े प्रसिद्ध जंगल के वृक्षोंको लाकर इस काममें उपयोग किया गया । इसलिये इस कार्यमें इतनी देरी लगी । वह पर्वत दक्षिणोत्तर पचास योजन प्रमाण है, उसके बीचोबीच पुलकी व्यवस्था की गई है। तमिस्र गुफाने मारीके समान मुँह खोला । तथापि वीरतासे प्रवेशकर कपाट को तोड़ा। तो भी स्वामिन्! मैं समझता हूँ कि मैंने इसमें कोई वीरताका कार्य