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भरतेश वंभव देवी ! समवशरणमें कितनी ही अजिंकायें व संयमी श्राविकायें श्रीं भगवान् ऋषभदेवके उपदेशसे इस धर्मायोगको धारण करती हैं।
इस धीरोगसे स्त्रीपयांयका नाश होता है, निश्चयसे देवगतिकी प्राप्ति होती है, एवंच क्रमसे मोक्षकी भी प्राप्ति होती है। यह जिनेन्द्र की आज्ञा है इसपर निश्चयसे विश्वास करो।
उपर्युक्त उपदेशसे प्रसन्न होकर विद्यामणि बैठ गई। उसी समय विनयवती नामकी रानी. उठकर खड़ी हुई और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी स्वामिन् ! देवगतिमें जाकर जन्म लेने के लिये कौनसे भावकी जरूरत है और किन भावोंसे मनुष्य होकर उत्पन्न होते हैं । इस बातोंको जरा हमें समझा दीजिये। ___ सम्राट्ने कहा कि देवि ! पुण्यमय भावोंसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है। पाप विचारोंसे नरक व तियंचगतिकी प्राप्ति होती है। पुण्य व पाप दोनों विचारोंकी समानतासे मनुष्य गतिकी प्राप्ति होती है ।। . इतने में विनयवती फिर हाथ जोड़कर कहने लगी कि वह पुण्यभाव किन साधनोंसे प्राप्त होता है और पाप विचारके कारण क्या है ? इन बातोंको स्पष्टकर समझानेकी कृपा करें।
देवी ! सुनो, दान देना, पूजा करना, प्रतोंका आचरण करना, शास्त्रोंका मनन करना आदि पुण्य प्राप्तिके साधन हैं । अभिमान, मायाचार, क्रोध, लोभ, भोगासक्ति आदि सब पापके कारण हैं। इसी प्रकार कुल जातिकी मर्यादाका उल्लंघन न करके चलना, जीवदया, तीर्थक्षेत्रकी वन्दना करना आदि पुण्यके कारण हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व अतिकांक्षा आदि बातोंसे पापका बंध होता है।
एक बात विचारणीय है। जो आत्मा पाप और पुण्यके आधीन होकर क्रिया करता है वह संसारमें परिभ्रमण करता है। जो पाप पुण्यको समदृष्टिसे देखकर अपनी ही आत्मामें ठहरता हो वह अधिक समय यहां न ठहरकर सिद्ध शिलापर चला जाता है।
विनयवती फिर हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी कि स्वामिन् ! स्वर्गसुखका अनुभव करनेवाले पुण्य व दुर्गतिको ले जानेवाले पापको समदृष्टिसे देखनेका उपाय क्या है ? इसे भी जरा अच्छी तरह समझा दीजिये।
देवी ! स्वर्गका सुख भी नित्य नहीं है, और नारंकियोंकी वेदना भी "नित्य नहीं हैं। दोनों अवस्थाएं दो स्थग्नके समान हैं। इससे अधिक
और भ्रम क्या है ? जिस प्रकार एक मनुष्य वृक्षपर चढ़कर आनन्दसे