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भरतेश वैभव जनसिद्ध शब्दको उच्चारण करते हुए महलकी ओर गये। वहांपर सबसे पहले पांच पुत्रों को देखकर फिर उनका यथोचित जातकमें प्रसार किया। दाद नायकाचिन दिन में नामकरण संस्कार किया । उम दिन आधीनस्थ मब राजाओंने नामकरण संस्कारके होंपलक्षमें अनेक रत्न, वस्त्र, उपहारोंको भेटमें चक्रवर्तीकी सेवामें समर्पण किया। इसी प्रकार प्रभाम देवने भी उत्तमोत्तम उपहारोंको भेंटकर अपने हर्ष और भक्तिको प्रगट किया। भरतेश्वरको परमात्मा प्रिय है। इमलिये उन पुत्रोंके नामकरणमें भी उन्होंने परमात्माका ध्यान रखा। उन पुत्रों का क्रमसे हंसराज, निरंजन सिद्धराज, महाराज, रत्नराज, ममुखराज, इस प्रकार नाम रखा गया। छह महीनेतक भरतेश्वरने उयो म्यानपर मुक्काम किया। बादम वहाँसे सेनाका प्रस्थान हुआ।
हिमवान् पर्वतसे गंगाके समान ही उदय पाकर दक्षिणकी ओर बहती हई पश्चिम समुद्र में जा मिलनेवाली सिंधुनामक महानदी मौजूद है । उसके दक्षिण तटको अनुसरण कर भरतेश्वरकी सेना जा रही है । जहाँ इच्छा होती है, मुक्काम करते हैं। फिर आगे चलते हैं । बीचबीच में जहाँ-तहाँ पुत्ररत्नोंकी प्राप्ति हई है या हो रही है उनको योग्य वयमें आनेके बाद उपनयनादि क्षत्रियोचित संस्कारोंको कराते हुए जा रहे हैं। कभी पर्वतोंपर चढ़कर जाना पड़ता है। कभी मैदानसे जाते हैं। कभी चाहते हैं। कभी उतरते हैं। इस प्रकार बहत आनंदके साथ जा रहे हैं । कभीकभी मार्ग न होने के कारण कोई-कोई पर्वतोंको तोड़कर मार्ग बनाते जाते हैं। पर्वतों को तोड़ते समय उनमें अनेक रत्न सुवर्ण वगैरह मिलते हैं । "उन सबके लिये सेनापति ही अधिकारी है" इस प्रकार भरतेश्वरकी ओरसे आज्ञा हुई है। सेना, किमीको कोई प्रकारका कष्ट नहीं है। इतना ही नहीं। प्रयाणके ममय किसी भी मनुष्यके पेटका पानी भी नहीं हिल रहा है। किसी भी प्राणीके परमें का भी नहीं लगते हैं, इतने सुखसे प्रयाण हो रहा है। __इस प्रकार अत्यन्त मुखके माथ अनेक मुक्कामोंको तय करते हुए सम्राट् एक ऐसे पर्वतके पास आये जो बांदीके समान शुभ्र था। वह कोई सामान्य पर्वत नहीं है, विजयार्ध पर्वत है। आकाशको स्पर्श करने जा रहा हो जैसे ऊँचा है, पूर्व और पश्चिम समुद्रको व्याप्त कर चांदीके दीवालके समान अत्यन्त सुन्दर मालूम हो रहा है। उस पर्वतके दक्षि
में एक सौ दस नगर हैं जिनमें विद्याधरोंका आवास है। उन नगरोमें गमनवल्लभपुर व रथनपुरचक्रवालपुर नामक दो नगर अत्यन्त