________________
भरतेश वैभव
२५७ लगा कि भाई ! ठीक है। अब क्या करें ? लोकमें सब कुछ पुण्यके उदयसे होते हैं। आज भरतेश्वरको भी यह सब पुण्यके तेजसे प्राप्त हए हैं, उसे कौन इन्कार कर सकता है। कोई हर्जकी बात नहीं। भरतेश कौन है ? वह हमारा भावजी ही तो है। उसके लिये जो वैभव है वह हमारे लिये है, ऐसा ममझकर अपन चलें। वह अपने पिताकी सहोदरीका पुत्र है। ऐसी अवस्थामें उसके साथ ईर्ष्या करनेसे क्या प्रयोजन ? नमिराजने कहा कि भाई ! वंसी बात नहीं है । मार्ग छोड़कर उसकी सेवा बत्तिको ग्रहण करने के लिये क्या अपन क्षत्रियपत्र नहीं हैं ? अब अपन उसके पास जायेंगे तो पहिलेके समान उठकर खड़ा नहीं होगा । हाथ नहीं जोड़ेगा। क्या यह अपना तिरस्कार नहीं है? अपन दोनों राजा है। परन्तु वह अपनेको राजाके नामसे नहीं कहेगा। बड़े अभिमानके साथ तुम, तू करके बुलायेगा। व्यन्तरगण, देवगण आदि अपनेको भरतेश्वरक सेवकोंकी दृष्टि से देखेंगे। जिन्होंने अपनी कन्याओंको उन्हें दी हैं वे यदि हाथ जोड़ें तो भी उनको वह हाथ नहीं जोड़ेगा। बाकी लोगोंकी बात ही क्या है । केवल दिखावट के लिये आप कहकर पुकारेगा। परन्तु उन कन्याओं को सहोदरोफ साथ तो वह भी व्यवहार नहीं होगा। फिर भी मूर्ख लोग इस भरतेश्वरको कन्या देनेके लिये कबूल होंगे व उसमें आनन्द मानेगे । साथमें इस वचनको कहते हुए नमिराज कुछ चिंताक्रांत दिखते थे। उन्होंने मंत्रीसे कहा कि मंत्री ! तुमने एक दफे यह कहा था कि बहिन सुभद्रादेवीका पाणिग्रहण भरतेशके साथ कराया जाय तो ठीक होगा, उस बातको अब भूल जाओ । मेरी इच्छा अब बिल्कुल नहीं है। इसके लिए अब क्या उपाय करना चाहिये । बोलो ! यदि उसे मालम हो जाय कि सुभद्रादेवी सुन्दरी है, वह जरूर उसे मांगेगा । परन्तु अब देना उचित नहीं है । ___ भाई ! मैं आकर उसका दर्शन नहीं करना चाहता। आप लोग जावें और उससे कहें कि नमिराज किसी एक विद्याको सिद्ध कर रहे हैं, इसलिये वे नहीं आ सके । साथमें दक्षिणभागसे विद्याधर राजाओंकी सुन्दरी कन्याओंको ले जाकर उनके साथ विवाह कर देवें । बहन सुभद्रादेवीको उसे समर्पण करनेका अब मेरा विचार नहीं है । फिर भी हमारे खजानेसे जो कुछ भी उत्तम वस्तु आप लोग समझें उसे लेजाकर समर्पण करें । जब उत्तर भागकी तरफ वह आयेगा हम उसके विषयमें