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भरतेश वैभव
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समर्थ है। इसलिए आज उसे बंद करके मैं लाया हूँ। इस प्रकार अर्ककीर्तिने भाईकी प्रशंसा की । साथमें आये हुए राजाओंने भी अर्क - कीर्तिके वचनका समर्थन किया। भरतेश्वर भी मनमें प्रसन्न होकर मौनसे अपने पुत्रकी प्रशंसा सुन रहे थे। फिर वृषभराजसे कहने लगे किं पुत्र ! अश्वारोहणकलामें इस प्रकार नैपुण्यको प्राप्त करनेपर भी उस दिन कपाटको फोड़ते समय तुम चुप क्यों रहे? मुझसे भी पहिले जाकर तुमको ही उसे फोड़ना चाहिये था, इसे सुनकर वृषभराज हँसा | सबको योग्य सन्मान के साथ भेजकर सम्राट अपने पुत्रों को लेकर महल में प्रवेश कर गये । बढ़ाँपर तीनों कुमारोंको बेला कर स्त्रियोंसे फिरसे आरती उतरवाई और उसे स्वतः प्रसन्न होकर देखने लगे । स्त्रियाँ अनेक मंगलपद गाने लगीं। साथ ही राजाने कुंतलावती, चंद्रिका देवी, कुसुमाजी आदि अपनी रानियोंको बुलवाकर सुपुत्रोंके वृत्तांतको कहा। उन पुत्रोंने भी माताओंके चरणोंमें मस्तक रखा, भरतेश्वग्ने उन रानियोंसे विनोदके लिए कहा कि देवी ! क्या अपने पुत्रोंको तुम लोग योग्य शिक्षा नहीं देती हो ? वे स्वेच्छाचार वर्तन करते हैं । उन रानियोंने भी विनोदमे ही उत्तर दिया कि स्वामिन् ! आपको जब हमारी पूज्य सास शिक्षा देंगी तब हम भी अपने पुत्रोंको शिक्षा देंगी। आपके पुत्र तो आपके समान ही हैं।
इसके बाद भरतेश्वरने उन पुत्रोंके साथ एक पंक्ति में बैठकर बहुत मानंदके साथ में भोजन किया। बादमें उन तीनों पुत्रोंको उनके महलमें भेजकर हमेशा के समान लीलाविनोदके साथ अपनी रानियोंके साथ भरतेश्वर पुत्रोंके गांभीर्य, चातुर्य आदिकी चर्चा करते हुए अपने महलमें रहे । भरतेश्वर सदा आनंदमग्न रहते हैं। उनको हर समय हर काममें सुखका ही अनुभव होता है, इसका कारण तो क्या है ? यह उनके पूर्व में सतत परिश्रम से अर्जित आत्मभावनाका फल है। उनकी सदा भावना रहती है कि
"हे सिद्धात्मन् ! आप अनंतसुखी हैं। क्योंकि अपने नित्य समाधिभावनाके बलसे सच्चिदानंद अवस्थाको प्राप्त किया है। जहाँ पर सुख दुःखकी हीनाधिक कल्पना ही नहीं, वहाँपर अनंत सुख ही सुखविद्यमान है । इसलिए हे स्वामिन्! मुझे भी परमसुखकी प्राप्तिके लिए उस प्रकारकी सुबुद्धि दीजिए" ।
"हे परमात्मन्! आप उपमातीत हैं। आपकी महिमा अपार है। मुनिअनोंके द्वारा आप बंध हैं। निरंजन हैं, अनन्तसुखोंके पिंड है। इसलिए